महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 120 श्लोक 1-13

विंशत्यधिकशततम (120) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


व्यास और मैत्रेय का संवाद - दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य

युधिष्ठिर ने पूछा- सत्यपुरुषों में श्रेष्ठ पितामह! विद्या, तप और दान- इनमें से कौन-सा श्रेष्ठ है? यह मैं आपसे पूछता हूँ, मुझे बताइये।

भीष्म जी ने कहा- राजन! इस विषय में श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास और मैत्रेय के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है।

नरेश्वर! एक समय की बात है, भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी गुप्त रूप से विचरते हुए वाराणसीपुरी में जा पहुँचे। वहाँ मुनियों की मण्डली में बैठे हुए मुनिवर मैत्रेय जी के यहाँ वे उपस्थित हुए। पास आकर बैठे हुए मुनिवर व्यास जी को पहचानकर मैत्रेयी जी ने उनका पूजन किया और उन्हें उत्तम अन्न भोजन कराया। वह उत्तम लाभदायक और सबकी रुचि के अनुकूल अन्न भोजन करके महामना व्यास जी बहुत संजुष्ट हुए। फिर जब वे वहाँ से चलने लगे तो मुस्कराये। उन्हें मुस्कराते देख मैत्रेय जी ने व्यास जी से पूछा- ‘धर्मात्मन! विद्वन! मैं आपको अभिवादन[1] एवं प्रणाम करके यह पूछता हूँ कि आप अभी-अभी जो मुस्कराये हैं, उसका क्या कारण है? आपको हँसी कैसे आयी? आप तो तपस्वी और धैर्यवान हैं। आपको कैसे सहसा उल्लास हो आया? यह मुझे बताइये।

तात! मैं अपने में तपस्याजनित सौभाग्य देखता हूँ और आप में यहाँ सहज महाभाग्य प्रतिष्ठित है (क्योंकि आप मेरे गुरुपुत्र हैं)। जीवात्मा और परमात्मा में मैं बहुत थोड़ा अन्तर मानता हूँ। परमात्मा का सभी पदार्थों के साथ सम्बन्ध है; क्योंकि वह सर्वव्यापी है। इसीलिये मैं उसे जीवात्मा की अपेक्षा श्रेष्ठ ही मानता हूँ, किन्तु आप तो जीवात्मा को परमात्मा से अभिन्न जानने वाले हैं, फिर आपका आचरण इस मान्यता से भिन्न हो रहा है; क्योंकि आपको कुछ विस्मय हुआ है और मुझे नहीं हुआ है।'

व्यास जी ने कहा- ब्रह्मन! अतिथि को अत्यन्त गौरव प्रदान करते हुए उसकी इच्छा के अनुसार सत्कार करना ‘अतिच्छन्द' कहलाता है और वाणी द्वारा अतिथि के गौरव का जो प्रकाशन किया जाता है, उसे ‘अतिवाद’ कहते हैं। मुझे यहाँ अतिच्छन्द और अतिवाद दोनों प्राप्त हुए हैं, इसीलिये मेरा यह विस्मय एवं हर्षोल्लास प्रकट हुआ है। (दान और आतिथ्य आदि का महत्त्व वेदों के द्वारा प्रतिपादित हुआ है)। वेदों का वचन कभी मिथ्या नहीं हो सकता। भला, वेद क्यों असत्य कहेगा?

वेद मनुष्य के लिये तीन बातों को उत्तम व्रत बताते हैं- (1.) किसी के प्रति द्रोह न करे, (2.) दान दे तथा (3.) दूसरों से सदा सत्य बोले। वेद के इस कथन का सबसे पहले ऋषियों ने पालन किया। हमने भी बहुत पहले से इसे सुन रखा है और इस समय भी वेद की इस आज्ञा का पालन करना हमारा कर्तव्य है। शास्त्रविधि के अनुसार दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान महान फल देने वाला होता है। तुमने ईर्ष्यारहित हृदय से भूखे-प्यासे अतिथि को अन्न-जल का दान किया है।

प्रभो! मैं भूखा और प्यासा था। तुमने मुझ भूखे-प्यासे को अन्न-जल देकर तृप्त किया। इस पुण्य के प्रभाव से महान यज्ञों द्वारा प्राप्त होने वाले बड़े-बड़े लोकों पर तुमने विजय पायी है- यह मुझे प्रत्यक्ष दिखायी देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदरणीय पुरुष के चरणों को हाथ से पकड़ कर जो नमस्कार किया जाता है, उसे अभिवादन कहते हैं और दोनों हाथों की अंजलि बाँधकर उसे अपने ललाट से लगाकर जो वंदनीय पुरुष को मस्तक झुकाया जाता है, उसका नाम प्रणाम है।

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