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महाभारत: द्रोणपर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
द्रोणाचार्य की मृत्यु का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का शोक करना
- धृतराष्ट्र बोले– संजय! रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य क्या कर रहे थे कि पाण्डव तथा सृंजय उन पर चोट कर सके? वे तो सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ और अस्त्र-विधा में निपुण थे। (1)
- उनका रथ टूट गया था बाणों का प्रहार करते समय धनुष ही खण्डित हो गया था अथवा द्रोणाचार्य असावधान थे, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी? (2)
- तात! द्रोणाचार्य तो शत्रुओं के लिये सर्वथा दुर्जय थे। वे सुवर्णमय पंख वाले बाणसमूहों की बारंबार वर्षा करते थे। उनके हाथों में फुर्ती थी। वे विचित्र रीति से युद्ध करने वाले और विद्वान थे। दूर तक बाण मारने वाले और अस्त्र-युद्ध में पारंगत थे। फिर उन जितेन्द्रिय दिव्यास्त्रधारी और अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य को पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने कैसे मार दिया? वे तो रणक्षेत्र में कठोर कर्म करने वाले, विजय के लिये प्रयत्नशील और महारथी वीर थे। (3-5)
- निश्चय ही पुरुषार्थ की अपेक्षा दैव ही प्रबल है, ऐसा मेरा विश्वास है; क्योंकि द्रोणाचार्य जैसे शूरवीर महामना धृष्टद्युम्न के हाथ से मारे गये। (6)
- जिन वीर सेनापति में चार प्रकारक अस्त्र प्रतिष्ठित थे, उन धनुर्धरों के आचार्य द्रोण को तुम मुझे मारा गया बता रहे हो। (7)
- व्याघ्रचर्म से आच्छादित सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हो सुनहरा शिरस्त्राण[1] धारण करने वाले द्रोणाचार्य को मारा गया सुनकर आज मैं अपने शोक को किसी प्रकार दूर नहीं कर पाता हूँ। (8)
- संजय! निश्चय ही कोई भी दूसरे के दु:ख से नहीं मरता है, तभी तो मैं मन्दबुद्धि मनुष्य द्रोणाचार्य को मारा गया सुनकर भी जी रहा हूँ। (9)
- मैं तो दैव को ही श्रेष्ठ मानता हूँ। पुरुषार्थ तो अनर्थ का ही कारण है। निश्चय ही मेरा यह अत्यन्त सुदृढ़ हृदय लोहे का बना हुआ है, जिससे द्रोणाचार्य को मारा गया सुनकर भी इसके सौ टुकड़े नहीं हो जाते। (10)
- गुणार्थी ब्राह्मण तथा राजकुमार ब्राह्म और दैव अस्त्रों के लिये जिनकी उपासना करते थे, उन्हें मृत्यु कैसे हर ले गयी? (11)
- द्रोण का रणभूमि में गिराया जाना समुद्र के सूखने, मेरु पर्वत के चलने-फिरने और सूर्य के आकाश से टूट कर गिरने के समान है। मैं इसे किसी प्रकार सहन नहीं कर पाता। (12)
- शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणाचार्य दुष्टों को दण्ड देने वाले और धार्मिकों के रक्षक थे। उन्होंने मुझ कृपण के लिये अपने प्राण तक दे दिये। (13)
- मेरे मूर्ख पुत्रों को जिनके ही पराक्रम के भरोसे विजय की आशा बनी हुई थी तथा जो बुद्धि में बृहस्पति और शुक्राचार्य के समान थे, वे द्रोणाचार्य कैसे मारे गये? (14)
- जिनके रंग लाल थे, जो विशाल एवं दृढ़ शरीर वाले थे, जिन्हें सोने की जालियों से आच्छादित किया जाता था, जो रथ में जोते जाने पर वायु के समान वेग से चलते थे, संग्राम में सब प्रकार के शस्त्रों द्वारा किये जाने वाले प्रहार को बचा जाते थे, जो बलवान, सुशिक्षित और रथ को अच्छी तरह वहन करने वाले थे, रणभूमि में जो दृढ़तापूर्वक डटे रहते और जोर-जोर से हिनहिनाते थे, धनुषों की टंकार के साथ होने वाली बाणवर्षा तथा अस्त्र-शस्त्रों के आघात को सहन करने में समर्थ एवं शत्रुओं को जीतने का उत्साह रखने वाले थे, जो पीड़ा तथा श्वास को जीत चुके थे, वे सिन्धुदेशीय घोड़े युद्धस्थल में चिग्घाड़ते हुए हाथियों और शंखों एवं नगाड़ों की आवाज से घबराये तो नहीं थे? (15-18)
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