पंचत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! आश्चर्य से आंखें फाड़-फाड़कर देखते हुए द्वारपालों ने जब भीतर जाने का मार्ग दे दिया, तब शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले कर्ण ने उस विशाल रंगभूमि में प्रवेश किया। उसने शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए दिव्य कवच को धारण कर रखा था। दोनों कानों के कुण्डल उसके मुख को उद्भासित कर रहे थे। हाथ में धनुष लिये और कमर में तलवार बांधे वह वीर पैरों से चलने वाले पर्वत की भाँति सुशोभित हो रहा था। कुन्ती ने कन्यावस्था में ही उसे अपने गर्भ में धारण किया था। उसका यश सर्वत्र फैला हुआ था। उसके दोनों नेत्र बड़े-बड़े थे। शत्रु समुदाय का संहार करने वाला कर्ण प्रचण्ड किरणों वाले भगवान् भास्कर का अंश था। उसमें सिंह के समान बल, सांड के समान वीर्य तथा गजराज के समान पराक्रम था, वह दीप्ति से सूर्य, कान्ति से चन्द्रमा तथा तेजस्वी गुण से अग्नि के समान जान पड़ता था। उसका शरीर बहुत ऊंचा था, अत: वह सुवर्णमय ताड़ के वृक्ष-सा प्रतीत होता था। उसके अंगों की गठन सिंह जैसी जान पड़ती थी। उसमें असंख्य गुण थे। उसकी तरुण अवस्था थी। वह साक्षात् भगवान् सूर्य से उत्पन्न हुआ था, अत: (उन्हीं के समान) दिव्य शोभा से सम्पन्न था। उस समय महाबाहु कर्ण ने रंगमण्डप में सब ओर दृष्टि डालकर द्रोणाचार्य और कृपाचार्य को इस प्रकार प्रणाम किया, मानो उनके प्रति उसके मन में अधिक आदर का भाव न हो। रंगभूमि में जितने लोग थे, वे सब निश्चल होकर एकटक दृष्टि से देखने लगे। यह कौन है, यह जानने के लिये उनका चित्त चञ्चल हो उठा। वे सब-के-सब उत्कण्ठित हो गये। इतने में ही वक्ताओं में श्रेष्ठ सूर्यपुत्र कर्ण, जो पाण्डवों का भाई लगता था, अपने अज्ञात भ्राता इन्द्रकुमार अर्जुन से मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोला। ‘कुन्तीनन्दन! तुमने इन दर्शकों के समक्ष जो कार्य किया है, मैं उससे भी अधिक अद्भुत कर्म कर दिखाऊंगा। अत: तुम अपने पराक्रम पर गर्व न करो’। वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय! कर्ण की बात अभी पूरी ही न हो पायी थी कि सब ओर से मनुष्य तुरंत उठकर खड़े हो गये, मानो उन्हें किसी यन्त्र से एक साथ उठा दिया गया हो। नरश्रेष्ठ! उस समय दुर्योधन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और अर्जुन के चित्त में क्षणभर में लज्जा और क्रोध का संचार हो आया। तब सदा युद्ध से ही प्रेम करने वाले महाबली कर्ण ने द्रोणाचार्य की आज्ञा लेकर, अर्जुन ने वहाँ जो-जो अस्त्र-कौशल प्रकट किया था, वह सब कर दिखाया। भारत! तदनन्तर भाईयों सहित दुर्योधन ने वहाँ बड़ी प्रसन्नता के साथ कर्ण को हृदय से लगाकर कहा। दुर्योधन बोला- महाबाहो! तुम्हारा स्वागत है। मानद! तुम यहाँ पधारे, यह हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात है। मैं तथा कौरवों का यह राज्य सब तुम्हारे हैं। तुम इनका यथेष्ट उपभोग करो। कर्ण ने कहा- प्रभो! आपने जो कुछ कहा है, वह सब पूरा कर दिया, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं आपके साथ मित्रता चाहता हूँ और अर्जुन के साथ मेरी द्वन्द्व-युद्ध करने की इच्छा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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