महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-13

पंचचत्वारिंश (45) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

गुण-दोषों के लक्षणों का वर्णन और ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन

  • सनत्सुजातजी कहते हैं- राजन! शोक, क्रोध, लोभ, काम, मान, अत्यन्त निद्रा, ईर्ष्‍या, मोह, तृष्‍णा, कायरता, गुणों में दोष देखना और निन्दा करना- ये बारह महान दोष मनुष्‍यों के प्राणनाशक हैं। (1)
  • राजेन्द्र! क्रमश: एक के पीछे दूसरा आकर ये सभी दोष मनुष्‍यों को प्राप्त होते जाते हैं, जिनके वश में होकर मूढ़-बुद्धि मानव पाप कर्म करने लगता है। (2)
  • लोलुप, क्रूर, कठोरभाषी, कृपण, मन-ही-मन क्रोध करने वाले और अधिक आत्मप्रशंसा करने वाले- ये छ: प्रकार के मनुष्‍य निश्चय ही क्रूर कर्म करने वाले होते हैं। ये प्राप्त हुई सम्पत्ति का उचित उपयोग नहीं करते। (3)
  • सम्भोग में मन लगाने वाले, विषमता रखने वाले, अत्यन्त अभिमानी, दान देकर आत्मश्‍लाघा करने वाले, कृपण, असमर्थ होकर भी अपनी बहुत बड़ाई करने वाले और सम्मान्य पुरुषों से सदा द्वैष रखने वाले- ये सात प्रकार के मनुष्‍य ही पापी और क्रूर कहे गये हैं। (4)
  • धर्म, सत्य, तप, इन्द्रियसंयम, डाह न करना, लज्जा, सहनशीलता, किसी के दोष न देखना, दान, शास्त्रज्ञान, धैर्य और क्षमा- ये ब्राह्मण के बारह महान व्रत हैं। (5)
  • जो इन बारह व्रतों से कभी च्युत नहीं होता, वह इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन कर सकता है। इनमें से तीन, दो या एक गुण से भी जो युक्त है, उसका अपना कुछ भी नहीं होता- ऐसा समझना चाहिये अर्थात उसकी किसी भी वस्तु में ममता नहीं होती। (6)
  • इन्द्रियनिग्रह, त्याग और अप्रमाद- इनमें अमृत की स्थिति है। ब्रह्म ही जिनका प्रधान लक्ष्‍य है, उन बुद्धिमान ब्राह्मणों के ये ही मुख्‍य साधन हैं। (7)
  • सच्ची हो या झूठी, दूसरों की निन्दा करना ब्राह्मण को शोभा नहीं देता। जो लोग दूसरों की निन्दा करते हैं, वे अवश्‍य ही नरक में पड़ते हैं। (8)
  • मद के अठारह दोष हैं, जो पहले सूचित करके भी स्पष्‍टरूप से नहीं बताये गये थे- लोक विरोधी कार्य करना, शास्त्र के प्रतिकुल आचरण करना, गुणियों पर दोषारोपण, असत्य भाषण। (9)
  • काम, क्रोध, पराधीनता, दूसरों के दोष बताना, चुगली करना, धन का दुरुपयोग से नाश, कलह, डाह, प्राणियों को कष्‍ट पहुँचाना। (10)
  • ईर्ष्‍या, हर्ष, बहुत बकवाद, विवेकशून्यता तथा गुणों में दोष देखने का स्वभाव। इसलिये विद्वान पुरुष को मद के वशी‍भूत नहीं होना चाहिये; क्योंकि सत्पुरुषों ने इस मद को सदा ही निन्दित बताया है। (11)
  • सोहार्द[1] के छ: गुण हैं, जो अवश्‍य ही जानने योग्य हैं। सुहृद का प्रिय होने पर हर्षित होना और अप्रिय होने पर कष्‍ट का अनुभव करना- ये दो गुण हैं। तीसरा गुण यह है कि अपना जो कुछ चिरसंचित धन हैं, उसे मित्र के मांगने पर दे डाले। मित्र के लिये अयाच्य वस्तु भी अवश्‍य देने योग्य हो जाती है और तो क्या, सुहृद के मांगने पर वह शुद्ध भाव से अपने प्रिय पुत्र, वैभव तथा पत्नी को भी उसके हित के लिये निछावर कर देता है। (12)
  • मित्र को धन देकर उसके यहाँ प्रत्युपकार पाने की कामना से निवासन करे- यह चौथा गुण है। अपने परिश्रम से उपार्जित धन का उपभोग करे[2]- यह पाँचवां गुण है तथा मित्र की भलाई के लिये अपने भले की परवा न करे- यह छठा गुण है। (13)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मित्रता
  2. मित्र की कमाई पर अवलम्बित न रहे

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