महाभारत वन पर्व अध्याय 80 श्लोक 1-19

अशीतितम (80) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन के लिये द्रौपदी सहित पाण्डवों की चिन्ता

जनमेजय ने पूछा- भगवन्! मेरे प्रपितामह अर्जुन के काम्यकवन से चले जाने पर उनसे अलग रहते हुए शेष पाण्डवों ने कौन-सा कार्य किया? वे सैन्यविजयी, महान् धनुर्धर अर्जुन ही उन सबके आश्रय थे। जैसे आदित्यों में विष्णु हैं, वैसे ही पाण्डवों में मुझे धनंजय जान पड़ते हैं। वे संग्राम से कभी पीछे न हटने वाले और इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उनके बिना मेरे अन्य वीर पितामह वन में कैसे रहते थे?

वैशम्पायन जी कहते हैं- तात! सत्यपराक्रमी पाण्डुकुमार अर्जुन के काम्यकवन से चले जाने पर सभी पाण्डव उनके लिये दुःख और शोक में मग्न रहने लगे। जैसे मणियों की माला का सूत टूट जाये अथवा पक्षियों के पंख कट जायें, वैसी दशा में उन मणियों और पक्षियों की जो अवस्था होती है, वैसी ही अर्जुन के बिना पाण्डवों की थी। उन सबके मन में तनिक भी प्रसन्नता नहीं थी। अनायास ही महान् कर्म करने वाले अर्जुन के बिना वह वन किसी प्रकार शोभा-शून्य-सा हो गया, जैसे कुबेर के बिना चैत्ररथ वन

जनमेजय! अर्जुन के बिना वे नरश्रेष्ठ पाण्डव आनन्दशून्य हो काम्यकवन में रह रहे थे। भरतश्रेष्ठ! वे महारथी वीर शुद्ध बाणों द्वारा ब्राह्मणों के (बाघम्बर आदि) लिये पराक्रम करके नाना प्रकार के पवित्र मृगों को मारा करते थे। वे नरश्रेष्ठ और शत्रुदमन पाण्डव प्रतिदिन ब्राह्मणों के लिये जंगली फल-मूल का आहार संग्रहीत करके उन्हें अर्पित करते थे। राजन्! धनंजय के चले जाने पर सभी नरश्रेष्ठ वहाँ खिन्न-चित्त हो उन्हीं के लिये उत्कण्ठित होकर रहते थे। विशेषतः पांचाल राजकुमारी द्रौपदी अपने मझले पति अर्जुन का स्मरण करती हुई सदा उद्विग्न रहने वाले पाण्डव शिरोमणि युधिष्ठिर से इस प्रकार बोली- ‘पाण्डवश्रेष्ठ! जो दो भुजा वाले अर्जुन सहस्रबाहु अर्जुन के समान पराक्रमी हैं, उनके बिना यह वन मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं यत्र-तत्र यहाँ की जिस-जिस भूमि पर दृष्टि डालती हूं, सबको सूनी-सी ही पाती हूँ। यह अनेक आश्चर्य से भरा हुआ और विकसित कुसुमों से अलंकृत वृक्षों वाला काम्यकवन भी सव्यसाची अर्जुन के बिना पहले जैसा रमणीय नहीं जान पड़ता है। नीलमेघ के समान कांति और मतवाले गजराज की-सी गति वाले उन कमलनयन अर्जुन के बिना यह काम्यकवन मुझे तनिक भी नहीं भाता है। राजन्! जिसके धनुष की टंकार बिजली की गड़गड़ाहट के समान सुनायी देती है, उन सव्यसाची की याद करके मुझे तनिक भी चैन नहीं मिलता’।

महाराज! इस प्रकार विलाप करती हुई द्रौपदी की बात सुनकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले भीमसेन ने उससे इस प्रकार कहा। भीमसेन बोले- 'भद्रे! सुमध्यमे! तुम जो कुछ कहती हो, वह मेरे मन को प्रसन्न करने वाला है। तुम्हारी बात मेरे हृदय को अमृतपान के तुल्य तृप्ति प्रदान करती है। जिसकी दोनों भुजाएं लम्बी, मोटी, बराबर-बराबर तथा परिघ के समान सुशोभित होने वाली हैं, जिन पर प्रत्यंचा की रगड़ का चिह्न बन गया है, जो गोलाकार हैं और जिनमें खग एवं धनुष सुशोभित होते हैं, सोने के भुजबन्दों से विभूषित होकर जो पांच-पांच फन वाले दो सर्पों के समान प्रतीत होती हैं, उन पांचों अंगुलियों से युक्त दोनों भुजाओं से विभूषित नरश्रेष्ठ अर्जुन के बिना आज यह वन सूर्यहीन आकाश के समान श्रीहीन दिखलायी देता है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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