पंचाशीत्यधिकशततम (185) अध्याय: द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद
संजय कहते हैं- राजन! जब इस प्रकार आपके पुत्र ने द्रोणाचार्य को उत्साहित करते हुए उनका क्रोध बढ़ाया, तब वे कुपित होकर दुर्योधन से इस प्रकार बोले- ‘दुर्योधन! यद्यपि मैं बूढ़ा हो गया, तथापि युद्ध स्थल में अपनी पूरी शक्ति लगाकर तुम्हारी विजय के लिये चेष्टा करता हूँ, परंतु जान पड़ता है, अब तुम्हारी जीत की इच्छा से मुझे नीच कार्य भी करना पड़ेगा। ‘ये सब लोग दिव्यास्त्रों को नहीं जानते और मैं जानता हूँ, इसलिये मुझे उन्हीं अस्त्रों द्वारा इन सबको मारना पड़ेगा। कुरुनन्दन! तुम शुभ या अशुभ जो कुछ भी कराना उचित समझो, वह तुम्हारे कहने से करूँगा, उसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा। ‘राजन! मैं सत्य की शपथ खाकर अपने धनुष को छूते हुए कहता हूँ कि ‘युद्ध में पराक्रम करके समस्त पांचालों का वध किये बिना कवच नहीं उतारूँगा’। ‘परंतु तुम जो कुन्तीकुमार अर्जुन को युद्ध में थका हुआ समझते हो, वह तुम्हारी भूल है। महाबाहु करूराज! मैं उनके पराक्रम का सच्चाई के साथ वर्णन करता हूँ, सुनो। ‘युद्ध में कुपित हुए सव्यसाची अर्जुन को न देवता, न गन्धर्व, न यक्ष और न राक्षस ही जीत सकते हैं। ‘उस महामनस्वी वीर ने खाण्डववन में वर्षा करते हुए भगवान देवराज इन्द्र का सामना किया और अपने बाणों द्वारा उन्हें रोक दिया। ‘पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ने उस समय यक्ष, नाग, दैत्य तथा दूसरे भी जो बल का घमंड रखने वाले वीर थे, उन सबको मार डाला था। यह बात तुम्हें मालूम ही है। ‘घोष यात्रा के समय जब चित्रसेन आदि गन्धर्व तुम्हें हर कर लिये जा रहे थे, उस समय दुदृढ़ धनुष धारण करने वाले अर्जुन ने ही उन सबको परास्त किया और तुम्हें बन्धन से छुड़ाया। ‘देवशत्रु निवातकवच नामक दानव, जिन्हें संग्राम में देवता भी नहीं मार सकते थे, उसी वीर अर्जुन से पराजित हुए हैं। ‘जिन पुरुषसिंह अर्जुन ने हिरण्यपुर निवासी सहस्रों दानवों पर विजय पायी है, वे मनुष्यों द्वारा कैसे जीते जा सकते हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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