चतुरशीत्यधिकशततम (184) अध्याय: द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार निद्रा से बेसुध हुआ वह सैन्यसमूह गहरी नींद में सो रहा था। वह देखने में ऐसा जान पड़ता था, मानो किन्हीं कुशल कलाकारों ने पट पर अद्भुत चित्र अंकित कर दिया हो। वे कुण्डलधारी तरुण क्षत्रिय परस्पर सायकों की मार से सम्पूर्ण अंगों में क्षत-विक्षत हो हाथियों के कुम्भस्थलों से सटकर ऐसे सो रहे थे, मानो कामिनियों के कुचों का आलिंगन करके सोये हों। तत्पश्चात कामिनियों के कपोलों के समान श्वेतपीत वर्ण वाले नयना नन्ददायी कुमुदनाथ चन्द्रमा ने पूर्व दिशा को सुशोभित किया। उदयाचल के शिखर पर चन्द्रमारूपी सिंह का उदय हुआ, जो पूर्व दिशारूपी कन्दरा से निकला था। वह किरणरूपी केसरों से प्रकाशित एवं पिंगलवर्ण का था और अन्धकाररूपी गजराजों के यूथ को विदीर्ण कर रहा था। भगवान शंकर के वृषभ नन्दिकेश्वर के उत्तम अंगों के समान जिसकी श्वेत कान्ति है, जो कामदेव के श्वेत पुष्पमय धनुष के समान पूर्णतः उज्ज्वल प्रभा से प्रकाशित होता है और नव वधू की मन्द मुस्कान के सदृश सुन्दर एवं मनोहर जान पड़ता है, वह कुमुदकुल-बान्धव चन्द्रमा क्रमशः ऊपर उठकर आकाश में अपनी चाँदनी छिटकाने लगा। उस समय दो घड़ी के बाद शशचिह्न से सुशोभित प्रभावशाली भगवान चन्द्रमा ने अपनी ज्योत्स्ना से नक्षत्रों की प्रभा को क्षीण करते हुए पहले अरुण कान्ति का दर्शन कराया। अरुण कान्ति के पश्चात चन्द्रदेव ने धीरे-धीरे सुवर्ण के समान प्रभा वाले विशाल किरण जाल का प्रसार आरम्भ किया। फिर वे चन्द्रमा की किरणें अपनी प्रभा से अन्धकार का निवारण करती हुई शनैः-शनैः सम्पूर्ण दिशाओँ, आकाश और भूमण्डल में फैलने लगीं। तदनन्तर एक ही मुहूर्त में समस्त संसार ज्योतिर्मय सा हो गया। अन्धकार का कहीं नाम भी नहीं रह गया। वह अदृश्यभाव से तत्काल कहीं चला गया। चन्द्रदेव के पूर्णतः प्रकाशित होने पर जगत में दिन का सा उजाला हो गया। राजन! उस समय रात्रि में विचरने वाले कुछ प्राणी विचरण करने लगे और कुछ जहाँ के वहाँ पड़े रहे। नरेश्वर! चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से सारी सेना उसी प्रकार जाग उठी, जैसे सूर्य रश्मियों का स्पर्श पाकर कमलों का समूह खिल उठता है। जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा का उदय होने पर उससे प्रभावित होने वाले महासागर में ज्वार उठने लगता है, उसी प्रकार उस समय चन्द्रोदय होने से उस सारे सैन्य समुद्र में खलबली मच गयी। प्रजानाथ! तदनन्तर इस जगत में महान जनसंहार के लिये परलोक की इच्छा रखने वाले योद्धाओं का वह युद्ध पुनः आरम्भ हो गया। इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गतघटोत्कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय सेना की निद्राविषयक एक सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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