महाभारत वन पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-17

त्रिषष्टितम (63) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


दमयन्ती का विलाप तथा अजगर एवं व्याध से उनके प्राण एवं सतीत्व की रक्षा तथा दमयन्ती के पातिव्रत्य धर्म के प्रभाव से व्याध का विनाश

बृहदश्व मुनि कहते हैं- राजन्! नल के चले जाने पर जब दमयन्ती की थकावट दूर हो गयी, तब उनकी आंख खुली। उस निर्जन वन में अपने स्वामी को न देखकर सुन्दरी दमयन्ती भयातुर और दुःख शोक से व्याकुल हो गयी। उसने भयभीत होकर निषध नरेश नल को ‘महाराज! आप कहाँ हैं?’ यह कहकर बड़े जोर से पुकारा। ‘हा नाथ! हा महाराज! हा स्वामिन्! आप मुझे क्यों त्याग रहे हैं? हाय! मैं मारी गयी, नष्ट हो गयी, इस जनशून्य वन में मुझे बड़ा भय लग रहा है। महाराज! आप तो धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं; फिर वैसी सच्ची प्रतिज्ञा करके आज आप इस जंगल में मुझे सोती छोड़कर कैसे चले गये? मैं आपकी सेवा में कुशल और अनुरक्त भार्या हूँ। विशेषत: मेरे द्वारा आपका कोई अपराध भी नहीं हुआ। यदि कोई अपराध हुआ है, तो वह दूसरे के ही द्वारा, मुझसे नहीं; तो भी आप मुझे त्यागकर क्यों चले जा रहे हैं?

नरेश्वर! आपने पहले स्वयंवर सभा में उन लोकपालों के निकट जो बातें कहीं थीं, क्या आप उन्हें आज मेरे प्रति सत्य सिद्ध कर सकेंगे? पुरुष शिरोमणे! मनुष्यों की मृत्यु असमय में नहीं होती, तभी तो आपकी यह प्रियतमा आप से परित्यक्त होकर दो घड़ी भी जी रही है। पुरुषश्रेष्ठ! यहाँ इतना ही परिहास बहुत है। अत्यन्त दुर्धर्ष वीर! मैं बहुत डर गयी हूँ। प्राणेश्वर! अब मुझे अपना दर्शन दीजिये। राजन्! निषधनरेश! आप दीख रहे हैं, दीख रहे हैं, यह दिखायी दिये। लताओं द्वारा अपने को छिपाकर आप मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे हैं? राजेन्द्र! मैं इस प्रकार भय और चिन्ता में पड़कर यहाँ विलाप कर रही हूँ और आप आश्वासन भी नहीं देते! भूपाल! यह तो आपकी बड़ी निर्दयता है।

नरेश्वर! मैं अपने लिये शोक नहीं करती। मुझे दूसरी किसी बात का भी शोक नहीं है। मैं केवल आपके लिये शोक कर रहीं हूँ कि आप अकेले कैसी शोचनीय दशा में पड़ जायेंगे! राजन्! आप भूखे-प्यासे और परिश्रम से थके-मांदे होकर जब सांयकाल किसी वृक्ष के नीचे आकर विश्राम करेंगे, उस समय मुझे अपने पास न देखकर आपकी कैसी दशा हो जायेगी?’

तदनन्तर प्रचण्ड शोक से पीड़ित हो क्रोधाग्नि से दग्ध होती हुई-सी दमयन्ती अत्यन्त दु:खी हो रोने और इधर-उधर दौड़ने लगी। दमयन्ती बार-बार उठती और बार-बार विह्वल हो गिर पड़ती थी। वह कभी भयभीत होकर छिपती और कभी जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगती थी। अत्यन्त शोकसंतप्त हो बार-बार लम्बी सांसे खींचती हुई व्याकुल पतिव्रता दमयन्ती दीर्घ निःश्वास लेकर रोती हुई बोली- ‘जिसके अभिशाप से निषध नरेश नल दुःख से पीड़ित हो क्लेश-पर-क्लेश उठाते जा रहे हैं, उस प्राणी को हम लोगों के दु:ख प्राप्त हों। जिस पापी ने पुण्यात्मा राजा नल को इस दशा में पहुँचाया है, वह उनसे भी भारी दुःख में पड़कर दुःख की जिंदगी बितावे’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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