महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 129 श्लोक 1-11

एकोनत्रिंशदधिकशततम (129) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


यम और गौतम का संवाद


युधिष्ठिर ने कहा- भरतनन्‍दन! जैसे अमृत को पीने से इच्‍छा पूर्ण नहीं होती, और भी पीने की इच्‍छा बढ़ती जाती हैंं, उसी प्रकार जब आप उपदेश करने लगते हैं, उस समय उसे सुनने में मेरा मन नहीं भरता है। जैसे परमात्मा के ध्‍यान में निमग्‍न हुआ योगी परमानन्‍द से तृप्‍त हो जाता है, उसी प्रकार मैं भी अत्‍यन्‍त तृप्ति का अनुभव करता हूँ। अत: पितामह! आप पुन: धर्म की ही बात बताइये। आपके धर्मोपदेशरुपी अमृत का पान करते समय मुझे यह नहीं अनुभव होता है कि बस, अब पूरा हो गया, बल्कि सुनने की प्‍यास और बढ़ती ही जाती है। भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस धर्म के विषय में विज्ञ पुरुष गौतम तथा महात्‍मा यम के संवाद रुप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं।

पारियात्र नामक पर्वत पर महर्षि गौतम का महान आश्रम है। उसमें गौतम जितने समय तक रहे, वह भी मुझसे सुनो। गौतम ने उस आश्रम में साठ हजार वर्षो तक तपस्या की। नरश्रेष्ठ! एक दिन उग्र तपस्‍या में लगे हुए पवित्र महात्‍मा महामुनि गौतम के पास लोकपाल यम स्‍वंय आये। उन्‍होंने वहाँ आकर उत्तम तपस्‍वी गौतम ऋषि को देखा। ब्रह्मर्षि गौतम ने वहाँ आये हुए यमराज को उनके तेज से ही जान लिया। फिर वे तपोधन मुनि हाथ जोड़ संयतचित्त हो उनके पास जा बैठे। धर्मराज ने विप्रवर गौतम को देखते ही उनका सत्‍कार किया और मैं आपकी क्‍या सेवा करुँ? ऐसा कहते हुए उन्‍हें धर्मचर्चा सुनने के लिये सम्‍मति प्रदान की। तब गौतम ने कहा- भगवन! मनुष्‍य कौन-सा कर्म करके माता-पिता के ऋण से उऋण हो सकता है? और किस प्रकार उसे दुर्लभ एवं पवित्र लोकों की प्राप्ति होती है?

यमराज ने कहा- ब्रह्मन! मनुष्‍य तप करे, बाहर-भीतर से पवित्र रहे और सदा सत्‍यभाषणरुप धर्म के पालन में तत्‍पर रहे। यह सब करते हुए ही उसे नित्‍य प्रति माता-पिता की सेवा-पूजा करनी चाहिये। राजा को तो पर्याप्त दक्षिणाओं से युक्‍त अनेक अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान भी करना चाहिये। ऐसा करने से पुरुष अदभुत दृश्‍यों से सम्‍पन्‍न पुण्‍यलोकों को प्राप्‍त कर लेता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में यम और गौतम का संवाद विषयक एकसौ उनतीसवां अध्‍याय पुरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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