महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 105 श्लोक 1-15

पञ्चाधिकशततम (105) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिये विभिन्न उपायों का वर्णन


मुनि ने कहा- राजकुमार! यदि तुम अपने में कुछ पुरुषार्थ देखते हो तो मैं तुम्हें राज्य की प्राप्ति के लिए एक नीति बता रहा हूँ। यदि तुम उसे कार्यरूप में परिणत कर सको, उसके अनुसार ही सारा कार्य करो तो मैं उस नीति का यथार्थरूप से वर्णन करता हूँ। तुम वह सब पूर्णरूप से सुनो। यदि तुम मेरी बतायी हुई नीति के अनुसार कार्य करोगे तो तुम्हें पुन: महान वैभव, राज्य, राज्य की मंत्रणा और विशाल सम्पत्ति की प्राप्ति होगी। राजन्‌! यदि मेरी यह बात तुम्हें रुचती हो तो फिर से कहो, क्या मैं तुमसे इस विषय का वर्णन करूं?

राजा ने कहा- प्रभो! आप अवश्य उस नीति का वर्णन करें। मै आपकी शरण में आया हूँ। आपके साथ जो समागम प्राप्त हुआ है, यह आज व्यर्थ न हो। मुनि ने कहा- राजन! तुम दम्भ, काम, क्रोध, हर्ष और भय को त्याग कर हाथ जोड़, मस्तक झुकाकर शत्रुओं की भी सेवा करो। तुम पवित्र व्यवहार और उत्तम कर्म द्वारा अपने प्रति विदेहराज का विश्वास उतन्न करो। विदेहराज सत्यप्रतिज्ञ हैं; अतः वे तुम्हें अवश्य धन प्रदान करेंगे। यदि ऐसा हुआ तो तुम समस्त प्राणियों के लिये प्रमाणभूत (विश्वासपात्र) तथा राजा की दाहिनी बाँह हो जाओगे। फिर तो तुम्हें बहुत-से शुद्ध हृदय वाले, दुव्र्यसनों से रहित तथा उत्साही सहायक मिल जायँगे। जो मनुष्य शास्त्र के अनुकूल आचरण करता हुआ अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखता है, वह अपना तो उद्धार करता ही है, प्रजा को भी प्रसन्न कर लेता है। राजा जनक बड़े धीर और श्रीसम्पन्न हैं। जब वे तुम्हारा सत्कार करेंगे, तब सभी लोगों के विश्वास-पात्र होकर तुम अत्यन्त गौरवान्वित हो जाओगे। उस अवस्था में तुम मित्रों की सेना इकट्ठी करके व्यक्तियों- द्वारा शत्रु दल में फूट डलवाकर बेल को बेल से ही फोड़ो (शत्रु के सहयोग से ही शत्रु का विध्वंस कर डालना)।

अथवा दूसरों से मेल करके उन्हीं के द्वारा शत्रु के बल का नाश कराओ। राजकुमार! जो शुभ पदार्थ अलभ्य हैं, उनमें तथा स्त्री, ओढ़ने-बिछाने के सुन्दर वस्त्र, अच्छे-अच्छे पलंग, आसन, वाहन, बहुमूल्य गृह, तरह-तरह के रस, गन्ध और फल- इन्हीं वस्तुओं में शत्रु को आसक्त करो। भाँति-भाँति के पक्षियों और विभिन्न जाति के पशुओं के पालन की आसक्ति शत्रु के मन में पैदा करो, जिससे यह शत्रु धीरे-धीरे धनहीन होकर स्वतः नष्ट हो जाय।
यदि ऐसा करते समय कभी शत्रु को उस व्यसन की ओर जाने से रोकने या मना करने की आवश्यकता पड़े तो वह भी करना चाहिये, अथवा वह उपेक्षा के योग्य हो तो उपेक्षा ही कर देनी चाहिये; किंतु उत्तम नीति का फल चाहने वाले राजा को चाहिये कि वह किसी भी दशा में शत्रु पर गुप्त मनोभाव प्रकट न होने दे। तुम बुद्धिमानों के विश्वासभाजन बनकर अपने महाशत्रु के राज्य में सानन्द विचरण करो और कुत्ते, हिरन तथा कौओं की तरह[1] चौकन्ने रहकर निरर्थक बर्तावों द्वारा विदेहराज के प्रति मित्रधर्म का पालन करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसे कुत्ते बहुत जागते है, उसी तरह शत्रु की गतिविधि को देखने के लिये बराबर जागता रहे। जिस प्रकार हिरन बहुत चैकन्ने होते है, जरा भी भय की आशंका होते ही भाग जाते है, उसी तरह हर समय सावधान रहे। भय आने के पहले ही वहाँ से खिचक जाय। जैसे कौए प्रत्येक मनुष्य की चेष्टा देखते रहते है, किसी को हाथ उठाते देख तुरंत उड जाते है; इसी प्रकार शत्रु की चेष्टा पर सदा दृष्टि रखे।

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