महाभारत सभा पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-20

द्वात्रिंश (32) अध्‍याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


नकुल के द्वारा पश्चिम दिशा की विजय

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अब मैं नकुल के पराक्रम और विजय का वर्णन करूँगा। शक्तिशाली नकुल ने जिस प्रकार भगवान वासुदेव द्वारा अधिकृत पश्चिम दिशा पर विजय पायी थी, वह सुनो। बुद्धिमान माद्रीकुमार ने विशाल सेना के साथ खाण्डवप्रस्थ से निकलकर पश्चिम दिशा में जाने के लिये प्रस्थान किया। वे अपने सैनिकों के महान सिंहनाद, गर्जना तथा रथ के पहियों की घर्घर की तुमुल ध्वनि से इस पृथ्वी को कम्पित करते हुए जा रहे थे। जाते-जाते वे बहुत धन धान्य से सम्पन्न गौओं की बहुलता से युक्त तथा स्वामी कार्तिकेय के अत्यन्त प्रिय रमणीय रोहतक[1] पर्वत एवं उसके समीपवर्ती देश में जा पहुँचे। वहाँ उनका मत्तमयूर नाम वाले शूरवीर क्षत्रियों के साथ घोर संग्राम हुआ। उस पर अधिकार करने के पश्चात महान तेजस्वी नकुल ने समूची मरूभूमि (मारवाड़), प्रचु धन धान्यपूर्प शैरीषक और महोत्य नामक देशों पर अधिकार प्राप्त कर लिया। महोदय देश के अधिपति राजर्षि आक्रोश को भी जीत लिया। आक्रोश के साथ उनका बड़ा भारी युद्ध हुआ था। तत्पश्चात दशार्णदेश पर विजय प्राप्त करके पाण्डुनन्दन नकुल ने शिवि, त्रिगर्त, अम्बष्ठ, मालव, पंचकर्वट एवं माध्यमिक देशों को प्रस्थान किया और उन सबको जीतकर वाटधानदेशीय क्षत्रियों को भी हराया। पुन: उधर से लौटकर नरश्रेष्ठ नकुल ने पुष्करारण्य निवासी उत्सव संकेत नामक गणों को परास्त किया। समुद्र के तट पर रहने वाले जो महाबली ग्रामणीय (ग्राम शासक के वंशज) क्षत्रिय थे, सरस्वती नदी के किनारे निवास करने वाले जो शूद्र आमीरगण थे, मछलियों से जीविका चलाने वाले जो घीवर जाति के लोग थे तथा जो पर्वतों पर वास करने वाले दूसरे-दूसरे मनुष्य थे, उन सबको नकुल ने जीतकर अपने वश में कर लिया।

फिर सम्पूर्ण पंचनद देश (पंजाब), अमरपर्वत, उत्तर जयोतिष, दिव्यकट नगर और दारपालपुर को अत्यन्त क्रान्तिमान नकुल ने शीघ्र ही अपने अधिकार में कर लिया। रामठ, हार, हूण तथा अन्य जो पश्चिमी नरेश थे, उन सबको पाण्डुकुमार नकुल ने आज्ञा मात्र से ही अपने अधीन कर लिया। भारत! वहीं रहकर उन्होंने वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के पास दूत भेजा। राजन्! उन्होंने केवल प्रेम के कारण नकुल का शासन स्वीकार कर लिया। इसके बाद शाकल देश को जीतकर बलावान् नकुल ने मद्रदेश की राजधानी में प्रवेश किया और वहाँ के शासक अपने मामा शल्य को प्रेम से ही वश में कर लिया। राजन्! राजा शल्य ने सत्कार के योग्य नकुल का यथावत् सत्कार किया। शल्य से भेट में बहुत से रत्न लेकर योद्धाओं के अधिपति माद्रीकुमार आगे बढ़ गये। तदनन्तर समुद्री टापुओं में रहने वाले अत्यन्त भयंकर म्लेच्छ, पह्लव, बर्बर, किरात, यवन और शकों को जीतकर उनसे रत्नों की भेंट ले विजय के विचित्र उपायों के जानने वाले कुरुश्रेष्ठ नकुल इन्द्रप्रस्थ की और लौटे। महाराज! उस महामना नकुल के बहुमूल्य खजाने का बोझ दस हजार हाथी बड़ी कठिनाई से ढो रहे थे। तदनन्तर श्रीमान माद्रीकुमार ने इन्द्रप्रस्थ में विराजमान वीरवर राजा युधिष्ठिर से मिलकर वह सारा धन उन्हें समर्पित कर दिया। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार भगवान वासुदेव के द्वारा अपने अधिकार में की हुई, वरुणपालित पश्चिम दिशा पर विजय पाकर नकुल इन्द्रप्रस्थ लौट आये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत दिग्विजयपर्व में नकुल के द्वारा पश्चिम दिशा की विजय से सम्बन्ध रखने वाला बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसी को आजकल रोहतक (पंजाब) कहते हैं।

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