महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 228 श्लोक 1-19

अष्‍टाविंशत्‍यधिकद्विशततम (228) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टाविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

दैत्‍यों को त्‍यागकर इन्‍द्र के पास लक्ष्‍मीदेवी का आना तथा किन सद्गुणों के होने पर लक्ष्‍मी आती हैं और किन दुर्गुणों के होने पर वे त्‍यागकर चली जाती हैं, इस बात को विस्‍तारपूर्वक बताना

युधिष्ठिर ने पूछा- राजन! पितामह! जिस पुरुष का उत्‍थान या पतन होने वाला होता है, उसके पूर्व लक्षण कैसे होते हैं? यह मुझे बताइये।

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। जिस मनुष्‍य का उत्‍थान या पतन होने को होता है, उसका मन ही उसके पूर्व लक्षणों को प्रकट कर देता है। इस विषय में लक्ष्‍मी के साथ जो इन्‍द्र का संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण यहाँ दिया जाता है। युधिष्ठिर! तुम ध्‍यान देकर उसे सुनो।

एक समय की बात है, महातपस्‍वी एवं पापरहित नारद जी अपनी इच्‍छा के अनुसार तीनों लोकों में विचरण करते थे। वे अपनी बड़ी भारी तपस्‍या के प्रभाव से ऊँचे और नीच दोनों प्रकार के लोकों को देख सकते थे तथा ब्रह्मलोक निवासी ऋषियों के समान होकर ब्रह्मा जी की भाँति अमित दीप्ति और आज से प्रकाशित हो रहे थे। एक दिन वे प्रात:काल उठकर पवित्र जल में स्‍नान करने की इच्‍छा से ध्रुवद्वार से प्रवाहित हुई गंगा जी के तट पर गये और उनके भीतर उतरे। इसी समय शम्‍बरासुर और पाक नामक दैत्‍य का वध करने वाले वज्रधारी सहस्र लोचन इन्‍द्र भी देवर्षियों द्वारा सेवित गंगा जी के उसी तट पर आये। फिर उन दोनों ने गंगा जी में गोते लगाकर मन को एकाग्र करके संक्षेप से गायत्री जप का कार्य पूर्ण किया। इसके बाद सूक्ष्‍म सुवर्णमयी बालुका से भरे हुए सुन्‍दर गंगा तट पर आकर वे दोनों बैठ गये और पुण्‍यात्‍मा पुरुषों, देवर्षियों तथा महर्षियों के मुख से सुनी हुई कथाएँ कहने-सुनने लगे। दोनों एकाग्रचित्त होकर प्राचीन वृत्‍तान्‍तों की चर्चा कर ही रहे थे कि किरण जाल से मण्डिल देख उन दोनों ने खडे़ होकर उनका उपस्‍थान किया। उदित होते हुए सूर्य के पास ही आकाश में उन्‍हें द्वितीय सूर्य के समान एक दिव्‍य ज्‍योति दिखायी दी, जो प्रज्‍वलित अग्निशिखा के समान प्रकाशित हो रही थी। भारत! वह ज्‍योति क्रमश: उन दोनों के समीप आती दिखायी दी। वह प्रजापुज भगवान विष्‍णु का एक विमान था, जो अपनी दिव्‍य प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित करता हुआ अनुपम जान पड़ता था। सूर्य और गरुड़ जिस आकाश मार्ग से चलते हैं, उसी पर वह भी चल रहा था। उस विमान में उन दोनों ने कमलदल पर विराजमान साक्षात लक्ष्‍मीदेवी को देखा, जो पहा के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्‍हें बहुत सी परम शोभामयी सुन्‍दरी अप्‍सराएँ आगे किये खड़ी थीं।

लक्ष्‍मीदेवी आकृति विशाल थी। वे अंशुमाली सूर्य के समान तेजस्विनी थीं और प्रज्‍वलित अग्नि की ज्‍वाला के समान जाज्‍वल्‍यमान हो रही थीं। उनके आभूषण नक्षत्रों के समान चमक रहे थे। मोती जैसे रत्‍नों के हार उनके कण्‍ठदेश की शोभा बढ़ा रहे थे। अगंनाओं में परम उत्‍तम लक्ष्‍मीदेवी उस विमान के अग्रभाग से उतरकर त्रिभुवनपति इन्‍द्र और देवर्षि नारद के पास आयीं। आगे-आगे नारद जी और उनके पीछे साक्षा इन्‍द्रदेव हाथ जोडे़ हुए देवी की ओर बढे़। उन्‍होंने स्‍वयं ही देवी को आत्‍मसमर्पण करके उनकी अनुपम पूजा की। राजन! तत्‍पश्‍चात सर्वज्ञ देवराज ने लक्ष्‍मीदेवी से इस प्रकार कहा। इन्‍द्र बोले-चारूहासिनि! तुम कौन हो? और किस कार्य से यहाँ आयी हो? सुन्‍दर भौंहोवाली देवि तुम्‍हारा शुभागमन कहाँ से हुआ है? और शुभे! तुम्‍हें जाना कहाँ है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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