षोडशाधिकद्विशततम (216) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षोडशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति तथा गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय भीष्म जी कहते हैं- राजन! सदा निष्कलंक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की इच्छा रखने वाले पुरुष को स्वप्न के दोषों पर दृष्टि रखते हुए सब प्रकार से निद्रा का परित्याग कर देना चाहिये। स्वप्न में जीव को प्राय: रजोगुण और तमोगुण दबा लेते हैं। वह कामनायुक्त होकर दूसरे शरीर को प्राप्त हुए की भाँति विचरता है। मनुष्य में पहले तो ज्ञान का अभ्यास करने से जागने की आदत होती है, तत्पश्चात विचार करने के लिये जागना अनिवार्य हो जाता है तथा जो तत्त्व ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह तो ब्रह्म में निरन्तर जागता ही रहता है। यहाँ पूर्व पक्ष यह प्रश्न उठाता है कि स्वप्न में जो यह देहादि पदार्थ दिखायी देता है, क्या है? (सत्य है या असत्य? यदि कहें कि सत्य है तो ठीक नहीं; क्योंकि) स्वप्नावस्था में सब कुछ विषयों से सम्पन्न-सा दिखायी देने पर भी वास्तव में वहाँ कोई विषय नही होता, सारी इन्द्रियाँ उस समय मन में विलीन हो जाती हैं। उन्हीं इन्द्रियों से देहाभिमानी जीव देहधारी जैसा बर्ताव करता है। और यदि कहें कि स्वप्न के पदार्थ असत्य हैं तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जो सर्वथा असत् है, (जैसे आकाश का पुष्प) उसकी प्रतीति ही नहीं होती। अब यहाँ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है। यह स्वप्न जगत जैसा है, उसे ठीक-ठीक योगेश्वर श्रीहरि ही जानते हैं; पर जैसा श्रीहरि जानते हैं, वैसा ही महर्षि भी उसका वर्णन करते हैं, उनका यह वर्णन युक्ति संगत भी है। विद्वान् महर्षियों का कहना है कि जाग्रत् अवस्था में निरन्तर शब्द आदि विषयों को ग्रहण करते-करते श्रोत्र आदि इन्दियाँ जब थक जाती हैं, तब सभी प्राणियों के अनुभव में आने वाला स्वप्न दिखायी देने लगता है। उस समय इन्द्रियों के लय होने पर भी मन का लय नहीं होता है; इसलिये वह समस्त विषयों का जो मन से अनुभव करता है, वही स्वप्न कहलाता है। इस विषय में प्रसिद्ध दृष्टान्त बताया जाता है। जैसे जाग्रत अवस्था में विभिन्न कार्यों में आसक्त चित्त हुए मनुष्य के संकल्प मनोराज्य की ही विभूति हैं, उसी प्रकार स्वप्न के भाव भी मन से ही सम्बन्ध रखते हैं। कामनाओं में जिसका मन आसक्त है, वह पुरुष स्वप्न में असंख्य संस्कारों के अनुसार अनेक दृश्यों को देखता है। वे समस्त संस्कार उसके मन में ही छिपे रहते हैं, जिन्हें वह सर्वश्रेष्ठ अन्तर्यामी पुरुष परमात्मा जानता है। कर्मों के अनुसार सत्वादि गुणों में से यदि यह सत्व, रज या तम जो कोई भी गुण प्राप्त होता है, उससे मन पर जब जैसे संस्कार पड़ते हैं अथवा जब जिस कर्म से मन भावित होता है, उस समय सूक्ष्मभूत स्वप्न में वैसे ही आकार प्रकट कर देते हैं। उस स्वप्न का दर्शन होते ही सात्त्विक,राजस अथवा तामस गुण यथायोग्य सुख-दु:खरूप फल का अनुभव कराने के लिये उसके पास आ पहुँचते हैं। तदनन्तर मनुष्य स्वप्न में अज्ञानवश वात, पित्त या कफ की प्रधानता से युक्त तथा काम, मोह आदि राजस, तामस भावों से व्याप्त नाना प्रकार के शरीरों का दर्शन करते हैं। तत्वज्ञान हुए बिना उस स्वप्नदर्शन को लाँघना अत्यन्त कठिन बताया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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