महाभारत शल्य पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-20

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


विनशन, सुभूमिक, गन्धर्व, गर्गस्त्रोत, शंख, द्वैतवन तथा नैमिषेय आदि तीर्थो में होते हुए बलमद्रजी का सप्त सारस्वत तीर्थ में प्रवेश


वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! उदपान तीर्थ से चलकर हलधारी बलराम विनशन तीर्थ में आये, जहाँ (दुष्कर्म परायण) शूद्रों और आमीरों के प्रति द्वेष होने से सरस्वती नदी विनष्ट (अदृश्य) हो गयी है। इसीलिये ऋषिगण उसे सदा विनशन तीर्थ कहते हैं। महाबली बलराम वहाँ भी सरस्वती में आचमन और स्नान करके उसके सुन्दर तट पर स्थित हुए सुभूमिक तीर्थ में गये। उस तीर्थ में गौरवर्ण तथा निर्मल मुख वाली सुन्दरी अप्सराएं आलस्य त्याग कर सदा नाना प्रकार की विमल क्रीड़ाओं द्वारा मनोरन्जन करती हैं। जनेश्वर! वहाँ उस ब्राह्मण सेवित पुण्य तीर्थ में गन्धर्वो सहित देवता भी प्रतिमास आया करते हैं। राजन! गन्धर्वगण और अप्सराएं एक साथ मिलकर वहाँ आती और सुख पूर्वक विचरण करती दिखायी देती हैं। वहाँ देवता और पितर लता-वेलों के साथ आमोदित होते हैं, उनके ऊपर सदा पवित्र एवं दिव्य पुष्पों की वर्षा बारंबार होती रहती है। राजन! सरस्वती के सुन्दर तट पर वह उन उप्सराओं की मंगलमयी क्रीड़ा भूमि है, इसलिये वह स्थान सुभूमिक नाम से विख्यात है। बलराम जी ने वहाँ स्नान करके ब्राह्मणों को धन दान किया और दिव्य गीत एवं दिव्य वाद्यों की ध्वनि सुनकर देवताओं, गन्धर्वो तथा राक्षसों की बहुत सी मूर्तियों का दर्शन किया।

तत्पश्चात रोहिणीनन्दन बलराम गन्धर्व तीर्थ में गये। वहाँ तपस्या में लगे हुए विश्वावसु आदि गन्धर्व अत्यन्त मनोरम नृत्य, वाद्य और गीत का आयोजन करते रहते हैं। हलधर ने वहाँ भी ब्राह्मणों को भेड़, बकरी, गाय, गदहा, ऊंट और सोना-चांदी आदि नाना प्रकार के धन देकर उन्हें इच्छानुसार भोजन कराया तथा प्रचुर धन से संतुष्ट करके ब्राह्मणों के साथ ही वहाँ से प्रस्थान किया। उस समय ब्राह्मण लोग बलराम जी की बड़ी स्तुति करते थे। उस गन्धर्व तीर्थ से चल कर एक कान में कुण्डल धारण करने वाले शत्रुदमन महाबाहु बलराम गर्ग स्त्रोत नामक महातीर्थ में आये। जनमेजय! वहाँ तपस्या से पवित्र अन्तः करण वाले महात्मा वृद्ध गर्ग ने सरस्वती के उस शुभ तीर्थ में काल का ज्ञान, काल की गति, ग्रहों और नक्षत्रों के उलट-फेर, दारुण उत्पात तथा शुभ लक्षण- इन सभी बातों की जानकारी प्राप्त कर ली थी। उन्हीं के नाम से वह तीर्थ गर्ग स्त्रोत कहलाता है। सामर्थ्यशाली नरेश्वर! वहाँ उत्तम व्रत का पालन करने वाले ऋषियों ने काल ज्ञान के लिये सदा महाभाग गर्ग मुनि की उपासना (सेवा) की थी।

महाराज! वहाँ जाकर श्वेतचन्दन चर्चित, नीलाम्बरधारी महायशस्वी बलराम जी विशुद्ध अन्तः करण वाले महर्षियों को विधिपूर्वक धन देकर ब्राह्मणों को नाना प्रकार के भक्ष्य भोज्य पदार्थ समर्पित करके वहाँ से शंख तीर्थ में चले गये। वहाँ ताल चिह्नित ध्वजा वाले बलवान बलराम ने महाशंख नामक एक वृक्ष देखा, जो महान मेरु पर्वत के समान ऊंचा और श्वेताचल के समान उज्ज्वल था। उसके नीचे ऋषियों के समूह निवास करते थे। वह वृक्ष सरस्वती के तट पर ही उत्पन्न हुआ था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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