पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततम (255) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचपंचाशदधिकद्विशततम श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
पचभूतों के तथा मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन
भीष्म जी कहते है- निष्पाप पुत्र युधिष्ठिर! द्वैपायन व्यासजी के मुख से वर्णित जो पंचमहाभूतों का निरूपण है, वह मैं पुन: तुम्हें बता रहा हूँ; तुम बड़ी स्पृहा के साथ इस विषय को सुनो। वत्स! प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी भगवान् वेदव्यास ने धूमाच्छादित अग्नि के सदृश विराजमान अपने पुत्र शुकदेव के समक्ष पहले जिस प्रकार इस विषय का प्रतिपादन किया था, उसे मैं पुन: तुमसे कहूँगा। बेटा! तुम सुनिश्वित दर्शन शास्त्र को श्रवण करो। स्थिरता, भारीपन, कठिनता, (कड़ापन), बीज को अंकुरित करने की शक्ति, गन्ध, विशालता, शक्ति, संघात, स्थापना और धारण शक्ति ये दस पृथ्वी के गुण है। शीतलता, रस, क्लेद, (गलाना या गीला करना), द्रवत्व (पिघलना),स्नेह (चिकनाहट), सौम्यभाव, जिहृा टपकता, ओले या बर्फ के रूप में जम जाना तथा पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले चावल-दाल आदि को गला देना-ये सब जल के गुण है। दुर्धर्ष होना, जलना, ताप देना, पकाना, प्रकाश करना, शोक, राग, हलकापन, तीक्ष्णता और आग की लपटों का सदा ऊपर की ओर उठना एवं प्रकाशित होना-ये सब अग्नि के गुण है। अनियत स्पर्श, वाक्-इन्द्रिय की स्थिति, चलने-फिरने आदि की स्वतन्त्रता,बल, शीघ्रगामिता,मल-मूत्र आदि को शरीर से बाहर निकालना, उत्क्षेपण आदि कर्म, क्रिया-शक्ति, प्राण और जन्म-मृत्यु -ये सब वायु के गुण हैं। शब्द, व्यापकता, छिद्र होना, किसी स्थूल पदार्थ का आश्रय न होना, स्वयं किसी दूसरे के आधार पर न रहना, अव्यक्तता, निर्विकारता, प्रतिघातशून्यता और भूतता अर्थात् श्रवणेन्द्रिय का कारण होना और विकृति से युक्त होना-ये सब आकाश के गुण हैं। इस प्रकार पंचमहाभूतों के ये पचास गुण बताये गये है। धैर्य,तर्क-वितर्क में कुशलता, स्मरण, भ्रान्ति, कल्पना, क्षमा एवं अशुभ संकल्प और चंचलता ये मन के नौ गुण है। इष्ट और अनिष्ट वृत्तियों का नाश, विचार, समाधान, संदेह और निश्चय-ये पाँच बुद्धि के गुण माने गये हैं। युधिष्ठिर ने पूछा – पितामह! बुद्धि के पाँच ही गुण कैसे हैं ? यह सारा सूक्ष्म ज्ञान आप मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा–वत्स युधिष्ठिर! महर्षियों का कहना है कि बुद्धि के साठ गुण हैं; अर्थात् पाँचों भूतों के पूर्वोक्त पचास गुण तथा बुद्धि के पाँच गुण मिलकर पचपन हुए। इनमें पंचभूतों को भी बुद्धि के गुणरूप से गिन लेने पर वे साठ हो जाते हैं। ये सभी गुण नित्य चैतन्य से मिले हुए हैं। पंचमहाभूत और उनकी विभूतियाँ अविनाशी परमात्मा की सृष्टि हैं; पंरतु परिवर्तनशील होने के कारण उसे तत्वज्ञ पुरुष नित्य नहीं बताते हैं। वत्स युधिष्ठिर! अन्य वक्ताओं ने जगत् की उत्पत्ति के विषय में पहले जो कुछ कहा है, वह सब वेदविरुद्ध और विचार-दूषित हैं; अत: इस समय तुम नित्यसिद्ध परमात्मा यथार्थ तत्व सुनकर उन्हीं परमेश्वर प्रभाव एवं प्रसाद से शान्तबुद्धि हो जाओ। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव का अनुप्रश्न विषयक दो सौ पचपनवॉ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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