महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 167 श्लोक 1-22

सप्तषष्ट्यधिकशततम (167) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: अनुशासनपर्व: सप्तषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

 

भीष्म के अन्तयेष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का उनके पास जाना और भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेते हुए धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! हस्तिनापुर में जाने के बाद कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर ने नगर ओर जनपद के लोगों का यथोचित सम्मान करके उन्हें अपने-अपने घर जाने की आज्ञा दी। इसके बाद जिन स्त्रियों के पति और वीर पुत्र युद्ध में मारे गये थे, उन सबको बहुत-सा धन देकर पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर ने धैर्य बँधाया। महाज्ञानी और धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने राज्याभिषेक हो जाने के पश्चात अपना राज्य पाकर मंत्री आदि समस्त प्रकृतियों को अपने-अपने पद पर स्थापित करके वेदवेत्ता एवं गुणवान ब्राह्मणों से उत्तम आशीर्वाद ग्रहण किया। पचास रात तक उस उत्तम नगर में निवास करके श्रीमान पुरुषप्रवर युधिष्ठिर को कुरुकुल के शिरोमणि भीष्म जी के बताये हुए समय का स्मरण हो आया। उन्होंने यह देखकर कि सूर्यदेव दक्षिणायन से निवृत्त हो गये और उत्तरायण पर आ गये, याजकों से घिरकर हस्तिनापुर से बाहर निकले।

कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने भीष्म जी का दाह-संस्कार करने के लिये पहले ही घृत, माल्य, गन्ध, रेशमी वस्त्र, चन्दन, अगुरु, काला चन्दन, श्रेष्ठ पुरुष के धारण करने योज्य मालाएँ तथा नाना प्रकार के रत्न भेज दिये थे। विभो! कुरुकुलननदन बुद्धिमान युधिष्ठिर राजा धृतराष्ट्र, यशस्विनी गान्धारी देवी, माता कुन्ती तथा पुरुषप्रवर भाईयों को आगे करके पीछे से भगवान श्रीकृष्ण, बुद्धिमान विदुर, युयुत्सु तथा सात्यकि को साथ लिये चल रहे थे। वे महातेजस्वी नरेश विशाल राजोचित उपकरण तथा वैभव के भारी ठाट-बाट से सम्पन्न थे, उनकी स्तुति की जा रही थी और वे भीष्म जी के द्वारा स्थापित की हुई त्रिविध अग्‍नियों को आगे रखकर स्वयं पीछे-पीछे चल रहे थे। वे देवराज इन्द्र की भाँति अपनी राजधानी से बाहर निकले और यथासमय कुरुक्षेत्र में शान्तनुनन्दन भीष्म जी के पास जा पहुँचे।

राजर्षे! उस समय वहाँ पराशरनन्दन बुद्धिमान व्यास, देवर्षि नारद और असित देवल ऋषि उनके पास बैठे थे। नाना देशों से आये हुए नरेश, जो मरने से बच गये थे, रक्षक बनकर चारों ओर से महात्मा भीष्म की रक्षा करते थे। धर्मराज राजा युधिष्ठिर दूर से बाणशय्या पर सोये हुए भीष्म जी को देखकर भाइयों सहित रथ से उतर पड़े।

शत्रुदमन नरेश! कुन्तीकुमार ने सबसे पहले पितामह को प्रणाम किया। उसके बाद व्यास आदि ब्राह्मणों को मस्तक झुकाया। फिर उन सबने भी उनका अभिनन्दन किया। तदनन्तर कुरुनन्दन के धर्मपुत्र युधिष्ठिर ब्रह्मा जी के समान तेजस्वी ऋत्विजों, भाइयों तथा ऋषियों से घिरे और बाणशय्या पर सोये हुए भरतश्रेष्ठ गंगापुत्र भीष्म जी से भाइयों सहित इस प्रकार बोले- ‘गंगानन्दन! नरेश्वर! महाबाहो! मैं युधिष्ठिर आपकी सेवा में उपस्थित हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। यदि आपको मेरी बात सुनायी देती हो तो आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ?

राजन! प्रभो! आपकी अग्नियों और आचार्यों, ब्राह्मणों तथा ऋत्विजों को साथ लेकर मैं अपने भाइयों के साथ ठीक समय पर आ पहुँचा हूँ। आपके पुत्र महातेजस्वी राजा धृतराष्ट्र भी अपने मन्त्रियों के साथ उपस्थित हैं और महापराक्रमी भगवान श्रीकृष्ण भी यहाँ पधारे हुए हैं। पुरुषसिंह! युद्ध में मरने से बचे हुए समस्त राजा और कुरुजांगल देश की प्रजा भी उपस्थित है। आप आँखे खोलिये और इन सबको देखिये। आपके कथनानुसार इस समय के लिये जो कुछ संग्रह करना आवश्यक था, वह सब जुटाकर मैंने यहाँ पहुँचा दिया है। सभी उपयोगी वस्तुओं का प्रबन्ध कर लिया गया है।'

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः