महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-17

षड्-विंश (26) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षड्-विंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर के द्वारा धन के त्याग की ही महत्ता का प्रतिपादन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इसी प्रसंग में उदार बुद्धि राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन से यह युक्ति युक्त बात कही- 'पार्थ! तुम जो यह समझते हो कि धन से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है तथा निर्धन को स्वर्ग, सुख और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती, यह ठीक नहीं है। बहुत से मनुष्य केवल स्वाध्याय यज्ञ करके सिद्धि को प्राप्त हुए देखे जाते हैं। तपस्या में लगे हुए बहुतेरे मुनि ऐसे हो गये हैं, जिन्हें सनातन लोकों की प्राप्ति हुई है। धनंजय! सम्पूर्ण धर्मों को जानने वाले जो लोग ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हो ऋषियों की स्वाध्याय-परम्परा की सदैव रक्षा करते हैं, देवता उन्हें ही ब्राह्मण मानते हैं। अर्जुन! तुम्हें सदा यह समझना चाहिये कि ऋषियों में से कुछ लोग वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय में ही तत्पर रहते हैं, कुछ ज्ञानोपार्जन में संलग्न होते हैं और कुछ लोग धर्म पालन में ही निष्ठा रखते हैं। पाण्डुनन्दन! प्रभो! वानप्रस्थों के वचन को जैसा हमने समझा है, उसके अनुसार ज्ञाननिष्ठ महात्माओं को ही राज्य के सारे कार्य सौंपने चाहिये।

भारत! अज, पृश्नि, सिकत, अरुण और केतु नाम वाले ऋषिगणों ने तो स्वाध्याय के द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त कर लिया था। धनंजय! दान, अध्ययन, यज्ञ और निग्रह- ये सभी कर्म बहुत कठिन हैं। इन वेदोक्त कर्मों का (सकाम भाव से) आश्रय लेकर लोग सूर्य के दक्षिण मार्ग से स्वर्ग में जाते हैं। इन कर्ममार्गी पुरुषों के लोकों की चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ। कुन्तीनन्दन! सूर्य के उत्तर में स्थित जो मार्ग है, जिसे तुम नियम के प्रभाव से देख रहे हो, वहाँ जो ये सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, वे निष्काम यज्ञ करने वालों को प्राप्त होते हैं। पार्थ! प्राचीन इतिहास को जानने वाले लोग इन दोनों मार्गों में से उत्तर मार्ग की प्रशंसा करते हैं। वास्तव में संतोष ही सबसे बढ़कर स्वर्ग है और संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष से बढ़कर कुछ नहीं है। जिसने क्रोध और हर्ष को जीत लिया है, उसी के हृदय में उस परम वैराग्यरूप संतोष की सम्यक् प्रतिष्ठा होती है और उसे ही सदा उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है।

इस प्रसंग में लोग राजा ययाति की गायी हुई इन गाथाओं को उदाहरण के तौर पर कहा करते हैं। जिनके द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को उसी प्रकार समेट लिया करता है। राजा ययाति ने कहा था- "जब यह पुरुष किसी से नहीं डरता, जब इससे भी किसी को भय नहीं रहता तथा जब यह न तो किसी को चाहता है और न उससे द्वेष ही रखता है, तब ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है। जब यह मन, वाणी और क्रिया द्वारा सम्पूर्ण भूतों के प्रति पाप-बुद्धि का परित्याग कर देता है, तब परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।" जिसके मान और मोह दूर हो गये हैं, जो नाना प्रकार की आसक्तियों से रहित है तथा जिसे आत्मा का ज्ञान प्राप्त हो गया है, उस साधु पुरुष को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है,। कुंतीनन्दन! मैं जो बात कह रहा हूँ, उसे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को संयम में रखकर सुनो! कुछ लोग धर्म की, कोई सदाचार की और दूसरे कितने ही मनुष्य धन की प्राप्ति के लिये सचेष्ट रहते हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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