महाभारत वन पर्व अध्याय 175 श्लोक 1-25

पंचसप्तत्यविकशततम (175) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पंचसप्तत्यविकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद


नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्रों के प्रदर्शन से रोकना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब वह रात बीत गयी, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने भाइयों सहित उठकर आवश्यक नित्यकर्म पूरे किये। तत्पश्चात उन्होंने भाइयों को सुख पहुँचाने वाले अर्जुन को आज्ञा दी- 'कुन्तीनन्दन! अब तुम उन दिव्यास्त्रों का दर्शन कराओ, जिनसे तुमने दानवों पर विजय पायी है।' राजन्! तब पाण्डुनन्दन अर्जुन ने देवताओं के दिये हुए उन दिव्य अस्त्रों को दिखाने का आयोजन किया। महातेजस्वी अर्जुन पहले तो विधिपूर्वक स्नान करके शुद्ध हुए। फिर त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर और इन्द्र को नमस्कार करके उन्होंने वह अत्यन्त तेजस्वी दिव्य कवच धारण किया। तत्पश्चात् वे पृथ्वीरूपी रथ पर आरूढ़ हो बड़ी शोभा पाने लगे। पर्वत ही उस रथ का कूबर था, दोनों पैर ही पहिये थे और सुन्दर बांसों का वन ही त्रिवेणु (रथ के अंगविशेष) का काम देता था। तदनन्तर महाबाहु कुन्तीनन्दन अर्जुन ने एक हाथ में गाण्डीव धनुष और दूसरे में सुशोभित हो उन्होंने क्रमशः उन दिव्यास्त्रों को दिखाना आरम्भ किया।

जिस समय उन दिव्यास्त्रों का प्रयोग प्रारम्भ होने जा रहा था, उसी समय अर्जुन के पैरों से दबी हुई पृथ्वी वृक्ष सहित कांपने लगी। नदियों और समुद्रों में उफान आ गया। पर्वत विदीर्ण होने लगे और हवा की गति रुक गयी। सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी और आग का जलना बंद हो गया। द्विजातियों को किसी प्रकार भी वेदों का भान नहीं हो पाता था। जनमेजय! भूमि के भीतर जो प्राणी निवास करते थे, वे भी पीड़ित हो उठे और अर्जुन को सब ओर से घेरकर खड़े हो गये। उन सबके मुख पर विकृति आ गयी थी। वे हाथ जोड़े हुए थर-थर कांप रहे थे और अस्त्रों के तेज से संतप्त हो धनंजय से प्राणों की भिक्षा मांग रहे थे। इसी समय ब्रह्मर्षि, सिद्ध महर्षि, समस्त जंगम प्राणी, श्रेष्ठ देवर्षि, देवता, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, पक्षी तथा आकाशचारी प्राणी सभी वहाँ आकर उपस्थित हो गये। इसके बाद ब्रह्माजी, समस्त लोकपाल तथा भगवान् महादेव अपने गणों सहित वहाँ आये।

महाराज! तदनन्तर वायुदेव पाण्डुनन्दन अर्जुन पर सब ओर से विचित्र सुगन्धित दिव्य मालाओं की वृष्टि करने लगे। राजन्! देवप्रेरित गन्धर्व नाना प्रकार की गाथाएं गाने लगे और झुंड-की-झुंड अप्सराएं नृत्य करने लगीं। नराधिप! उस समय देवताओं के कहने से महर्षि नारद अर्जुन के पास आये और उनसे यह सुनने योग्य बात कहने लगे- 'अर्जुन! अर्जुन! इस समय दिव्यास्त्रों का प्रयोग न करो। भारत! ये दिव्य अस्त्र किसी लक्ष्य के बिना कदापि नहीं छोड़े जाते। कोई लक्ष्य मिल जाये तो भी ऐसा मनुष्य कभी इनका प्रयोग न करे, जो स्वयं संकट में न पड़ा हो। कुरुनन्दन! इन दिव्यास्त्रों का अनुचित रूप में प्रयोग करने पर महान् दोष प्राप्त होता है। धनंजय! शास्त्र के अनुसार सुरक्षित रखे जाने पर ही ये अस्त्र सबल और सुखदायक होते हैं, इसमें संशय नहीं है। पाण्डुपुत्र! इनकी समुचित रक्षा न होने पर ये दिव्यास्त्र तीनों लोकों के विनाश के कारण बन जाते हैं। अतः फिर कभी इस तरह इनके प्रदर्शन का साहस न करना। अजातशत्रु युधिष्ठिर! (आप भी इस समय इन्हें देखने का आग्रह छोड़ दें), जब रणक्षेत्र में शत्रुओं के संहार का अवसर आयेगा, उस समय अर्जुन के द्वारा प्रयोग में लाये जाने पर इन दिव्यास्त्रों का दर्शन कीजियेगा।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- नरश्रेष्ठ! इस प्रकार अर्जुन को दिव्यास्त्रों के प्रदर्शन से रोककर सम्पूर्ण देवता तथा अन्य सभी प्राणी जैसे आये थे, वैसे लौट गये। कुरुनन्दन! उन सबके चले जाने पर सब पाण्डव द्रौपदी के साथ बड़े हर्षपूर्वक उसी वन में रहने लगे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में अस्त्रदर्शन विषयक एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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