महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 51 श्लोक 1-18

एकपंचाशत्तम (51) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म के द्वाराश्रीकृष्ण की स्तुति तथा श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर के लिये धर्मोंपदेश करने का आदेश

वैशम्पायनजी कहते है- राजन्! परम बुद्धिमान वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण का वचन सुनकर भीष्मजी ने अपना मुँह कुछ ऊपर उठाया और हाथ जोडकर कहा-। भीष्मजी बोले- सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान भगवान श्रीकृष्ण! आपको नमस्कार है। ह्षीकेश! आप ही इस जगत की सृष्टि और संहार करने वाले है। आपकी कभी पराजय नहीं होती। इस विश्व की रचना करने वाले परमेश्वर! आपको नमस्कार है। विश्व के आत्मा और विश्व की उत्पत्ति के स्थान भूत जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप पाँचों भूतों से परे और सम्पूर्ण प्राणियों के लिये मोक्षस्वरूप है। तीनों लोकों में व्याप्त हुए आपको नमस्कार है। तीनों गुणों से अतीत आपको प्रणाम है। योगेश्वर! आपको नमस्कार है। आप ही सबसे परम आधार है। पुरुषप्रवर! आपने मेरे सम्बन्ध में जो बात कही हैं, उससे मैं तीनों लोकों में व्याप्त हुए आपके दिव्य भावों का साक्षात्कार कर रहा हूँ। गोविन्द! आपका जो सनातन रूप हैं, उसे भी मैं देख रहा हूँ। आपने ही अत्यन्त तेजस्वी वायु का रूप धारण करके ऊपर के सातों लोकों को व्याप्त कर रखा है। स्वर्गलोक आपके मस्तक से और वसुन्धरा देवी आपके पैरों से व्याप्त है। दिशाएँ आपकी भुजाएँ है। सूर्य नेत्र हैं और शुक्राचार्य आपके वीर्य में प्रतिष्ठित है। आपका श्रीविग्रह तीसी के फूल की भाँति श्याम है। उस पर पीताम्बर शोभा दे रहा है, वह कभी अपनी महिमा से च्युत नहीं होता। उसे देखकर हम अनुमान करते है कि बिजली सहित मेघ शोभा पा रहा है। मैं आपकी शरण में आया हुआ आपका भक्त हूँ, और अभीष्ट गति को प्राप्त करना चाहता हूँ। कमलनयन! सुरश्रेष्ठ! मेरे लिये जो कल्याणकारी उपाय हो उसी का संकल्प कीजिये। श्रीकृष्ण बोले- राजन्!पुरुषवर! मुझमें आपकी पराभक्ति है। इसलिये मैंने आपको अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन कराया है। भारत! राजेन्द्र! जो मेरा भक्त नहीं है अथवा भक्त होने पर भी सरल स्वाभाव का नहीं है। जिसके मन में शान्ति नहीं है, उसे मैं अपने स्वरूप का दर्शन नहीं कराता। आप मेरे भक्त तो है ही। आपका स्वभाव भी सरल है। आप इन्द्रिय संयम, तपस्या, सत्य और दान में तत्पर रहने वाले तथा परम पवित्र है। भूपाल! आप अपने तपोबल से ही मेरा दर्शन करने के योग्य है। आपके लिये वे दिव्य लोक प्रस्तुत हैं जहाँ से फिर इस लोक में नहीं आना पड़ता। कुरूवीर भीष्म !अब आपके जीवन के कुल छप्पन दिन शेष है। तदन्तर आप इस शरीर का त्याग करके अपने शुभ कर्मों के फलस्वरूप उत्तम लोकों में जायेंगे। देखिये, ये प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी देवता और वसु विमानों में बैठकर आकाश में अदृश्यरूप से रहते हुए सूर्य उत्तरायण होने और आपके आने की बाट जोहते है। पुरुषों में प्रमुख वीर! जब भगवान सूर्य कालवश दक्षिणायन से लौटते हुए उत्तर दिशा के मार्ग पर लौटेंगे, उस समय आप उन्हीं लोकों में जाइयेगा जहाँ जाकर ज्ञानी पुरुष फिर इस संसार में नहीं लौटते है।

वीर भीष्म! जब आप परलोक में चले जाइयेगा उस समय सारे ज्ञान लुप्त हो जायेंगे; अतः ये सब लोग आपके पास धर्म का विवेचन कराने के लिये आये है। ये सत्यपरायण युधिष्ठिर बन्धुजनों के शोक से अपना सारा शास्त्रज्ञान खो बैठे है; अतः आप इन्हें धर्म, अर्थ और योग से युक्त यथार्थ बातें सुनाकर शीघ्र ही इनका शोक दूर कीजिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में श्रीकृष्णवाक्यविषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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