महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 201 श्लोक 1-12

एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

बृहस्‍पति के प्रश्‍न के उत्‍तर में मनु द्वारा कामनाओं के त्‍याग की एवं ज्ञान की प्रशंसा तथा परमात्‍तत्‍व का निरूपण

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! ज्ञान योग का, वेदों का तथा वेदोक्‍त नियम (अग्निहोत्र आदि) का क्‍या फल है? समस्‍त प्राणियों के भीतर रहने वाले परमात्‍मा का ज्ञान कैसे हो सकता हैं ? यह मुझे बताइये।

भीष्‍मजी ने कहा- राजन! इस विषय में प्रजापति मनु तथा महर्षि बृहस्‍पति के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक समय की बात है, देवता और ऋषियों की मण्‍डली में प्रधान म‍हर्षि बृहस्‍पति ने प्रजाओं के श्रेष्ठतम प्रजापति गुरु मनु को शिष्‍यभाव से प्रणाम करके यह प्राचीन प्रश्‍न पूछा। भगवन! जो इस जगत का कारण है, जिसके लिये वैदिक कर्मों का अनुष्ठान किया जाता है, ब्राह्मण लोग जिसे ही ज्ञान होने पर प्राप्‍त होने वाला फल (परब्रह्म परमात्‍मा) बताते हैं तथा वेद के मन्‍त्र वाक्‍यों द्वारा जिसका तत्त्व पूर्णरूप सें प्रकाश में नहीं आता, उस नित्‍य वस्‍तु का आप मेरे लिये यथावद् रूप से वर्णन कीजिये। अर्थशास्त्र, आगम (वेद) और मन्‍त्र को जानने वाले विद्वान पुरुष अनेकानेक महान यज्ञों और गोदानों द्वारा जिस सुखमय फल की उपासना करते हैं, वह क्‍या है, किस प्रकार प्राप्‍त होता है और कहाँ उसकी स्थिति है?

भगवन! पृथ्‍वी, पार्थिव पदार्थ, वायु, आकाश, जलजन्‍तु, जल, द्युलोक और देवता जिससे उत्‍पन्‍न होते हैं, वह पुरातन वस्‍तु क्‍या है? यह मुझे बताइये। मनुष्‍य को जिस वस्‍तु का ज्ञान होता है, उसी को वह पाना चाहता है और पाने की इच्‍छा उत्‍पन्‍न होने पर उसके लिये वह प्रयत्‍न आरम्‍भ करता है; परंतु मैं तो उस पुरातन परमोत्‍कृष्ट वस्‍तु के विषय में कुछ जानता ही नहीं हूँ; फिर उसे पाने के लिये झूठा प्रयत्‍न कैसे करूँ? मैंने ऋक्, साम और यजुर्वेद का तथा छन्‍द का अर्थात् अथर्ववेद का एवं नक्षत्रों की गति, निरूक्‍त, व्‍याकरण, कल्‍प और शिक्षा का भी अध्‍ययन किया है तो भी मैं आकाश आदि पाँचों महाभूतों के उपादान कारण को न जान सका। अत: आप सामान्‍य और विशेष शब्‍दों द्वारा इस सम्‍पूर्ण विषय का मेरे निकट वर्णन कीजिये। तत्‍वज्ञान होने पर कौन-सा फल प्राप्‍त होता है? कर्म करने पर किस फल की उपलब्धि होती है? देहाभिमानी जीव देह से किस प्रकार निकलता है और फिर दूसरे शरीर में कैसे प्रवेश करता है? ये सारी बातें आप मुझे बताइये।

मनु ने कहा- जिसको जो-जो विषय प्रिय होता है, वही उसके लिये सुखरूप बताया गया है और जो अप्रिय होता है, उसे ही दु:खरूप कहा गया है। मुझे इष्ट (प्रिय) की प्राप्ति हो और अनिष्ट का निवारण हो जाय, इसी के लिये कर्मों का अनुष्ठान आरम्‍भ किया गया है तथा इष्ट और अनिष्ट दोनों ही मुझे प्राप्‍त न हों, इसके लिये ज्ञानयोग का उपदेश किया गया है। वेंद में जो कर्मों के प्रयोग बताये गये हैं, वे प्राय: सकामभाव से युक्‍त हैं। जो इन कामनाओं से मुक्‍त होता है, वही परमात्‍मा को पा सकता है। नाना प्रकार के कर्ममार्ग में सुख की इच्‍छा रखकर प्रवृत्‍त होने वाला मनुष्‍य परमात्‍मा को प्राप्‍त नहीं होता।

बृहस्‍पति ने कहा- भगवन! सुख सबको अभीष्ट होता है और दु:ख किसी को भी प्रिय नही होता। इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के निवारण के लिये जो कामना होती हैं, वही मनुष्‍यों से कर्म करवाती है और उन कर्मों द्वारा उनका मनोरथ पूर्ण करती है; अत: कामना को आप त्याज्य कैसे बताते हैं?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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