महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 139 श्लोक 1-18

एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम (139) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन और कर्ण का भयंकर युद्ध, पहले भीम की और पीछे कर्ण की विजय, उसके बाद अर्जुन के बाणों से व्यथित होकर कर्ण और अश्वत्थामा का पलायन

संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर कर्ण ने तीन बाणों से भीमसेन को घायल करके उन पर बहुत से विचित्र बाण बरसाये। सूत पुत्र द्वारा बेंधे जाने पर भी महाबाहु पाण्डु पुत्र भीमसेन को विद्ध होने वाले पर्वत के समान तनिक भी व्यथा नहीं हुई। माननीय नरेश! फिर उन्होंने भी युद्धस्थल में तेल के धोये हुए पानीदार एवं तीखे ‘कणी’ नामक बाण से कर्ण के कान में गहरी चोट पहुँचायी। महाराज! भीम ने कर्ण के सोने के बने हुए विशाल एवं सुन्दर कुण्डल को आकाश से चमकते हुए तारे के समान पृथ्वी पर काट गिराया। तदनन्तर भीमसेन ने अत्यन्त कुपित हो हँसते हुए-से दूसरे भल्ल से सूत पुत्र की छाती में बड़े जोर से आघात किया। भरत नन्दन! फिर महाबाहु भीम ने बड़ी उतावली के साथ केंचुल से छूटे हुए विषधर सर्पों के समान दस नाराच उस रणक्षेत्र में कर्ण पर चलाये। भारत! उनके चलाये हुए वे नाराच सूतपुत्र का ललाट छेद करके बाँबी में सर्पों के समान उके भीतर घुस गये। ललाट में स्थित हुए उन बाणों से सूत पुत्र की उसी प्रकार शोभा हुई, जैसे वह पहले मस्तक पर नीलकमल की माला धारण करके सुशोभित होता था। वेगवान पाण्डु पुत्र भीम के द्वारा अत्यन्त घायल कर दिये जाने पर कर्ण ने रथ के कुबर का सहारा लेकर आँखें बंद कर लीं।

शत्रुओं का संताप देने वाले कर्ण को पुनः दो ही घड़ी के बाद चेत हो गया। उस समय उसका सारा शरीर रक्त से भीग गया था। उस दशा में उसे बड़ा क्रोध हुआ। सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले भीमसेन से पीड़ित हुए महान् वेगशाली कर्ण ने रणभूमि में कुपित हो भीमसेन के रथ की ओर बड़े वेग से आक्रमण किया। राजन! भरत नन्दन! अमर्षशील एवं क्रोध में भरे हुए बलवान कर्ण ने भीमसेन पर गीध के पंख वाले सौ बाण चलाये। तब समर भूमि में कर्ण के पराक्रम को कुछ न समझते हुए उसकी अवहेलना करके पाण्डु नन्दन भीमसेन ने उसके ऊपर भयंकर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! तब कर्ण ने कुपित हो क्रोध में भरे हुए पाण्डु पुत्र भीमसेन की छाती में नौ बाण मारे। वे दोनों पुरुषसिंह दाढ़ों वाले दो सिंहों के समान परस्पर जूझ रहे थे और आकाश में दो मेघों के समान युद्ध स्थल में वे दोनों एक दूसरे पर बाणों की वर्षा कर रहे थे। वे अपनी हथेलियों के शब्द से एक दूसरे को डराते हुए युद्ध स्थल में विविध बाण समूहों द्वारा परस्पर त्रास पहुँचा रहे थे। वे दोनों वीर समर में कुपित हो एक दूसरे के किये हुए प्रहार का प्रतीकार करने की अभिलाषा रखते थे।

भरत नन्दन! तब शत्रुओं का संहार करने वाले महाबाहु भीमसेन ने क्षुरप्र के द्वारा सूत पुत्र के धनुष को काटकर बड़े जोर से गर्जना की। तब महारथी सूतपुत्र कर्ण ने उस कटे हुए धनुष को फेंक कर भार निवारण करने में समर्थ और अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथ में लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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