षट्षष्टयधिकद्विशततम (266) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षट्षष्ट्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-15 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद
महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान - दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आप मेरे परमगुरु हैं। कृपया यह बतलाइये कि यदि कभी सर्वथा ऐसा कार्य उपस्थित हो जाय, जो गुरुजनों की आज्ञा के कारण अवश्य कर्तव्य हो, परंतु हिंसायुक्त होने के कारण दुष्कर एवं अनुचित प्रतीत होता हो तो ऐसे अवसर पर उस कार्य की परख कैसे करनी चाहिये? उसे शीघ्र कर डालें या देर तक उस पर विचार करता रहे। भीष्म जी ने कहा– बेटा! इस विषय में जानकार लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जो पहले आंगिरस-कुल में उत्पन्न चिरकारी पर बीत चुका है। ‘चिरकारी! तुम्हारा कल्याण हो। चिरकारी! तुम्हारा मंगल हो। चिरकारी बड़ा बुद्धिमान है। चिरकारी कर्तव्यों के पालन में कभी अपराध नहीं करता है।’ (यह बात चिरकारी की प्रशंसा करते हुए उसके पिता ने कही थी)। कहते हैं, महर्षि गौतम के एक महाज्ञानी पुत्र था, जिसका नाम था चिरकारी। वह कर्तव्य-विषयों का भली-भाँति विचार करके सारे कार्य विलम्ब से किया करता था। वह सभी विषयों पर बहुत देर तक विचार करता था, चिरकाल तक जागता था और चिरकाल तक सोता था तथा चिर-विलम्ब के बाद ही कार्य पूर्ण करता था; इसलिये सब लोग उसे चिरकारी कहने लगे। एक दिन की बात है, गौतम ने अपनी स्त्री के द्वारा किये गये किसी व्यभिचार पर कुपित हो अपने दूसरे पुत्रों को न कहकर चिरकारी से कहा– बेटा! तू अपनी इस पापिनी माता को मार डाल'। उस समय बिना विचारे ही ऐसी आज्ञा देकर जप करने वालों में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि महाभाग गौतम वन में चले गये। चिरकारी ने अपने स्वभाव के अनुसार देर करके कहा, ‘बहुत अच्छा‘। चिरकारी तो वह था ही, चिरकाल तक उस बात पर विचार करता रहा। उसने सोचा कि ‘मैं किस उपाय से काम लूँ, जिससे पिता की आज्ञा का पालन भी हो जाय और माता का वध भी न करना पड़े। धर्म के बहाने यह मेरे ऊपर महान् संकट आ गया है। भला, अन्य असाधु पुरुषों की भाँति मैं भी इसमें डूबने का कैसे साहस करूँ? पिता की आज्ञा का पालन धर्म है और माता की रक्षा करना पुत्र का प्रधान धर्म है। पुत्र कभी स्वतन्त्र नहीं होता, वह सदा माता-पिता के अधीन ही रहता है, अत: क्या करूँ जिससे मुझे धर्म की हानिरूप पीड़ा न हो। एक तो स्त्री-जाति, दूसरे माता का वध करके कौन पुत्र कभी भी सुखी हो सकता है? पिता की अवहेलना करके भी कौन प्रतिष्ठा पा सकता है? पिता का अनादर उचित नहीं है, साथ ही माता की रक्षा करना भी पुत्र का धर्म है। ये दोनों ही धर्म उचित और योग्य हैं। मैं किस प्रकार इनका उल्लंघन न करूँ? पिता स्वयं अपने शील, सदाचार, कुल और गोत्र की रक्षा के लिये स्त्री के गर्भ में अपना ही आधान करता और पुत्ररूप में उत्पन्न होता है। अत: मुझे माता और पिता- दोनों ने ही पुत्र के रूप में जन्म दिया है। मैं इन दोनों को ही अपनी उत्पत्ति का कारण समझता हूँ। मेरा ऐसा ही ज्ञान क्यों न सदा बना रहे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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