महाभारत आदि पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-13

द्वयशीतितम (82) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: द्वयशीतितम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


ययाति से देवयानी को पुत्र-प्राप्ति; ययाति और शर्मिष्ठा का एकान्‍त मिलन और उनसे एक पुत्र का जन्‍म

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ययाति की राजधानी महेन्‍द्रपुरी (अमरावती) के समान थी। उन्‍होंने वहाँ आकर देवयानी को तो अन्‍त:पुर में स्‍थान दिया और उसी की अनुमति से अशोक वाटिका के समीप एक महल बनवाकर उसमें वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को उसकी एक हजार दासियों के साथ ठहराया और उन सबके लिये अन्‍न, वस्त्र, तथा पेय आदि की अलग-अलग व्‍यवस्‍था के शर्मिष्ठा का समुचित सत्‍कार किया। देवयानी ययाति के साथ परमरमणीय एवं मनोरम अशोक वाटिका में आती और शर्मिष्ठा के साथ वन-विहार करके उसे वहीं छोड़कर स्‍वयं राजा के साथ महल में चली जाती थी। इस तरह वह बहुत समय तक प्रसन्नापूर्वक आनन्‍द भोगती रही। नहुषकुमार राजा ययाति ने देवयानी के साथ बहुत वर्षों तक देवताओं की भाँति विहार किया। वे उसके साथ बहुत प्रसन्न और सुखी थे। ॠतुकाल आने पर सुन्‍दरी देवयानी ने गर्भधारण किया और समयानुसार प्रथम पुत्र को जन्‍म दिया। इस प्रकार एक हजार वर्ष व्‍यतीत हो जाने पर युवावस्‍था को प्राप्त हुई वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने अपने को रजस्‍वलावस्‍था में देखा और चिन्‍तामग्न हो गयी। स्‍नान करके शुद्ध हो समस्‍त आभूषणों से विभूषित हुई शर्मिष्ठा सुन्‍दर पुष्‍पों के गुच्‍छों से भरी अशोक-शाखा का आश्रय लिये खड़ी थी।

दर्पण में अपना मुंह देखकर उसके मन में पति के दर्शन की लालसा जाग उठी और वह शोक एवं मोह से युक्त हो इस प्रकार बोली- ‘हे अशोकवृक्ष! जिनका हृदय शोक में डूबा हुआ है, उन सबके शोक को तुम दूर करने वाले हो। इस समय मुझे प्रियतम का दर्शन कराकर अपने ही जैसे नाम वाली बना दो।’ ऐसा कहकर शर्मिष्ठा फि‍र बोली- ‘मुझे ॠतुकाल प्राप्त हो गया; किंतु अभी तक मैंने पति का वरण नहीं किया है। यह कैसी परिस्थित आ गयी। अब क्‍या करना चाहिये अथवा क्‍या करने से सुकृत (पुण्‍य) होगा। देवयानी तो पुत्रवती हो गयी; किंतु मुझे जो जवानी मिली है, वह व्‍यर्थ जा रही है। जिस प्रकार उसने पति का वरण किया है, उसी तरह मैं भी उन्‍हीं महाराज का क्‍यों न पति के रुप में वरण कर लूं। मेरे याचना करने पर राजा मुझे पुत्र रुप फल दे सकते हैं, इस बात का मुझे पूरा विश्वास है; परंतु क्‍या वे धर्मात्‍मा नरेश इस समय मुझे एकान्‍त में दर्शन देंगे?’

शर्मिष्ठा इस प्रकार का विचार कर ही रही थी कि राजा ययाति उस समय दैववश महल से बाहर निकले और अशोक वाटिका के निकट शर्मिष्ठा को देखकर ठहर गये। मनोहर हास वाली शर्मिष्ठा ने उन्‍हें एकान्‍त में अकेला देख आगे बढ़कर उनकी अगवानी की तथा हाथ जोड़कर राजा से यह बात कही। शर्मिष्ठा ने कहा- नहुषनन्‍दन! चन्‍द्रमा, इन्‍द्र, विष्‍णु, यम, वरुण अथवा आपके महल कौन किसी स्त्री की ओर दृष्टि डाल सकता है? (अतएव यहाँ मैं सर्वथा सुरक्षित हूँ) महाराज! मेरे रुप, कुल और शील कैसे हैं, यह तो आप सदा से ही जानते हैं। मैं आज आपको प्रसन्न करके यह प्रार्थना करती हूँ कि मुझे ॠतुदान दीजिये- मेरे ॠतुकाल को सफल बनाइये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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