महाभारत आदि पर्व अध्याय 109 श्लोक 1-19

नवाधिकशततम (109) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: नवाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


राजा धृतराष्ट्र का विवाह

भीष्‍म जी ने कहा- बेटा विदुर! हमारा यह कुल अनेक सद्गुणों से सम्‍पन्न होकर इस जगत् में विख्‍यात हो रहा है। यह अन्‍य भूपालों को जीतकर इस भूमण्‍डल के साम्राज्‍य का अधिकारी हुआ है। पहले के धर्मज्ञ एवं महात्‍मा राजाओं ने इसकी रक्षा की थी; अत: हमारा यह कुल इस भूतल पर कभी उच्छिन्न नहीं हुआ। (बीच में संकट काल उपस्थित हुआ था किंतु) मैंने, माता सत्यवती ने तथा महात्‍मा श्रीकृष्‍ण्‍ाद्वैपायन व्‍यास जी ने मिलकर पुन: इस कुल को स्‍थापित किया है। तुम तीनों भाई इस कुल के तंतु हो और तुम्‍ही पर अब इसकी प्रतिष्ठा है। वत्‍स! यह हमारा वही कुल आगे भी जिस प्रकार समुद्र की भाँति बढ़ता रहे, नि:संदेह वही उपाय मुझे और तुम्‍हें भी करना चाहिये। सुना जाता है, यदुवंशी शूरसेन की कन्‍या पृथा (जो अब राजा कुन्तिभोज की गोद ली हुई पुत्री है) भली-भाँति हमारे कुल के अनुरुप है। इसी प्रकार गान्‍धारराज सुबल और मद्रनरेश के यहाँ भी एक-एक कन्‍या सुनी जाती है। बेटा! वे सब कन्‍याऐं बड़ी सुन्‍दरी तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हैं। वे श्रेष्ठ क्षत्रियगण हमारे साथ-विवाह-सम्‍बन्‍ध करने के सर्वथा योग्‍य हैं। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ विदुर! मेरी राय है कि इस कुल की संतान परम्‍परा को बढ़ाने के लिये उक्त कन्‍याओं का वरण करना चाहिये अथवा जैसी तुम्‍हारी सम्‍मति हो, वैसा किया जाय।

विदुर बोले- प्रभो! आप हमारे पिता हैं, आप ही माता हैं और आप ही परम गुरु हैं; अत: स्‍वयं विचार करके जिस बात में इस कुल का हित हो, वह कीजिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इसके बाद भीष्‍म जी ने ब्राह्मणों से गान्‍धारराज सुबल की पुत्री शुभलक्षणा गान्धारी के विषय में सुना कि वह भगदेवता के नेत्रों का नाश करने वाली वरदायक भगवान् शंकर की आराधना करके अपने लिये सौ पुत्र होने का वरदान प्राप्त कर चुकी है। भारत! जब इस बात का ठीक-ठीक पता लग गया, तब कुरुपितामह भीष्‍म ने गान्‍धारराज के पास अपना दूत भेजा। धृतराष्ट्र अंधे हैं, इस बात को लेकर सुबल के मन में बड़ा विचार हुआ। परंतु उनके कुल, प्रसिद्धि और आचार आदि के विषय में बुद्धिपूर्वक विचार करके उसने धर्मपरायणा गान्‍धारी का धृतराष्ट्र के लिये वाग्‍दान कर दिया।

जनमेजय! गान्‍धारी ने जब सुना कि धृतराष्ट्र अंधे हैं और पिता-माता मेरा विवाह उन्‍हीं के साथ करना चाहते हैं, तब उन्‍होंने रेशमी वस्त्र लेकर उसके कई तह करके उसी से अपनी आंखें बांध लीं। राजन्! गान्‍धारी बड़ी पतिव्रता थीं। उन्‍होंने निश्चय कर लिया था कि मैं (सदा पति के अनुकूल रहूंगी,) उनके दोष नहीं देखूंगी। तदनन्‍तर एक दिन गान्‍धारराजकुमार शकुनि युवावस्‍था तथा लक्ष्‍मी के समान मनोहर शोभा से युक्त अपनी बहिन गान्‍धारी को साथ लेकर कौरवों के यहाँ गये और उन्‍होंने बड़े आदर-सत्‍कार के साथ धृतराष्ट्र को अपनी बहिन सौंप दी। शकुनि ने भीष्‍म जी की सम्‍मति के अनुसार विवाह-कार्य सम्‍पन्न किया। वीरवर शकुनि ने अपनी बहिन का विवाह करके यथा योग्‍य दहेज दिया। बदले में भीष्‍म जी ने भी उनका बड़ा सम्‍मान किया। तत्‍पश्चात् वे अपनी राजधानी को लौट आये। भारत! सुन्‍दर शरीर वाली गान्‍धारी ने अपने उत्तम स्‍वभाव, सदाचार तथा सद्व्‍यवहारों से कौरवों को प्रसन्न कर लिया। इस प्रकार सुन्‍दर बर्ताव से समस्‍त गुरुजनों की प्रसन्नता प्राप्त करके उत्तम व्रत का पालन करने वाली पतिपरायण गान्‍धारी ने कभी दूसरे पुरुषों का नाम तक नहीं लिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में धृतराष्ट्रविवाहविषयक एक सौ नवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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