पन्चाधिकत्रिशततम (305) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)
महाभारत: वन पर्व: पन्चाधिकत्रिशततम अध्यायः 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज! इस प्रकार वह कन्या पृथा कठोर व्रत का पालन करती हुई शुद्ध हृदय से उन उत्तम व्रतधारी ब्राह्मण को अपनी सेवाओं द्वारा संतुष्ट रखने लगी। राजेन्द्र! वे श्रेष्ठ ब्राह्मण कभी यह कहकर कि मैं ‘प्रातःकाल लौट आऊँगा’, चल देते और सायंकाल अथवा बहुत रात बीतने पर पुनः वापस आते थे। परंतु वह कन्या प्रतिदिन हर समय पहले की अपेक्षा अधिक-अधिक परिणाम में भक्ष्य-भोज्य आदि सामग्री तथा शय्या-आसन आदि प्रस्तुत करके उनका सेवा-सत्कार किया करती थी। नित्यप्रति अन्न आदि के द्वारा उन ब्राह्मण का सत्कार अन्य दिनों की अपेक्षा बढ़कर ही होता था। उनके लिये शय्या और आसन आदि की सुविधा भी पहले की अपेक्षा अधिक ही दी जाती थी। किसी बात में तनिक भी कमी नहीं की जाती थी। राजन्! वे ब्राह्मण कभी धिक्कारते, कभी बात-बात में दोषारोपण करते और प्रायः कटु वचन भी बोला करते थे, तो भी पृथा उनके प्रति कभी कोई अप्रिय बर्ताव नहीं करती थी। वे कभी ऐसे समय में लौटकर आते थे, जबकि पृथा को दूसरे कामों से दम लेने की भी फुरसत नहीं होती थी और कभी वे कई दिनों तक आते ही नहीं थे। आने पर ऐसा भोजन माँग लेते, जो अत्यन्त दुर्लभ होता। परंतु कुन्ती उनकी माँगी हुई सब वस्तुएँ इस प्रकार प्रस्तुत कर देती थी, मानो उनको पहले से ही तैयार करके रक्खा हो। वह अत्यंत संयत होकर शिष्य, पुत्र तथा छोटी बहिन की भाँति सदा उनकी सेवा में लगी रहती थी। राजेन्द्र! उस अनिन्द्य कन्यारत्न कुन्ती ने उन श्रेष्ठ ब्राह्मण को उनकी रुचि के अनुसार सेवा करके अत्यन्त प्रसन्न कर लिया। उसके शील, सदाचार तथा सावधानी से उन द्विजश्रेष्ठ को बड़ा संतोष हुआ। उन्होंने कुन्ती का हित करने का पूरा प्रयत्न किया। जनमेजय! पिता कुन्तीभोज प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल पूछते थे- ‘बेटी! तुम्हारी सेवा से ब्राह्मण को संतोष तो है न?’ वह तपस्विनी कन्या उन्हें उत्तर देती- ‘हाँ पिताजी! वे बहुत प्रसन्न हैं।’ यह सुनकर महामना कुन्तीभोज को बड़ा हर्ष प्राप्त होता था। तदनन्तर जब एक वर्ष पूरा हो गया और पृथा के प्रति वात्सल्य स्नेह रखने वाले जपकर्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण दुर्वासा जी ने उसकी सेवा में कोई त्रुटि नहीं देखी, तब वे प्रसन्नचित्त होकर पृथा से इस प्रकार बोले- ‘भद्रे! मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ। शुभे! कल्याणि! तुम मुझसे ऐसे वर माँगो, जो यहाँ दूसरे मनुष्यों के लिये दुर्लभ हों और जिनके कारण तुम संसार की समस्त सुन्दरियों को अपने सुयश से पराजित कर सको’। कुन्ती बोली- 'वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ! जब मुझ सेविका के ऊपर आप और पिताजी प्रसन्न हो गये, तब मेरी सब कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। विप्रवर! मुझे वर लेने की आवश्यकता नहीं है।' ब्राह्मण ने कहा- 'भद्रे! पवित्र मुस्कान वाली पृथे! यदि तुम मुझसे वर नहीं लेना चाहती हो, तो देवताओं का आवाहन करने के लिये यह एक मन्त्र ही ग्रहण कर लो। भद्रे! तुम इस मन्त्र के द्वारा जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, वह-वह तुम्हारे अधीन हो जाने के लिये बाध्य होगा।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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