चत्वारिंश (40) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद फलसहित दैवी और आसुरी सम्पदा का वर्णन तथा शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्र के अनुकुल आचरण करने के लिये प्रेरणा श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिये कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता। मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूत प्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। तेज,[1] क्षमा, धैर्य,[2] बाहर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव- ये सब तो हे अर्जुन! दैवी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति विशेष का नाम तेज है, जिसके कारण उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत हो जाते हैं।
- ↑ भारी से भारी आपत्ति, भय या दुःख उपस्थित होने पर भी विचलिन न होना काम, क्रोध, भय या लोभ में किसी प्रकार भी अपने धर्म और कर्तव्य विमुख न होना ‘धैर्य’ है।
- ↑ इस अध्याय में पहले श्लोक से लेकर इस श्लोक के पूर्वार्द्ध तक ढाई श्लोकों में छब्बीस लक्षणों के रूप में उस दैवीसम्पद्रूप सद्गुण और सदाचार का ही वर्णन किया गया है। अतः ये सब लक्षण जिसमें स्वभाव से विद्यमान हों अथवा जिसने साधन द्वारा प्राप्त कर लिये हों। वही पुरुष दैवी सम्पद से युक्त है।
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