महाभारत वन पर्व अध्याय 132 श्लोक 1-12

द्वात्रिं‍शदधि‍कशततम (132) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वात्रिं‍शदधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


अष्‍टावक्र के जन्‍म का वृत्‍तान्‍त और उनका राजा जनक के दरबार में जाना

लोमश जी कहते है- युधिष्ठिर! उद्दालक के पुत्र श्‍वेतकेतु हो गये हैं, जो इस भूतल पर मन्‍त्र शास्‍त्र में अत्‍यन्‍त नि‍पुण कहे जाते थे, देखो यह पवि‍त्र आश्रम उन्‍हीं का है। जो सदा फल देने वाले वृक्षों से हरा-भरा दि‍खायी देता है। इस आश्रम में श्‍वेतकेतु ने मानवरूपी सरस्वती देवी का प्रत्‍यक्ष दर्शन कि‍या था और अपने नि‍कट आयी हुई उन सरस्‍वती से यह कहा था कि‍ ‘मैं वाणीस्‍वरूपा आपके तत्‍व को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूं’। उस युग में कहोड़ मुनि‍ के पुत्र अष्टावक्र और उद्दालकनन्‍दन श्‍वेतकेतु- ये दानों महर्षि‍ समस्‍त भूमण्‍डल के वेदवेत्‍तओं में श्रेष्ठ थे। वे आपस में मामा और भानजा लगते थे (इनमें श्‍वेतकेतु ही मामा था)।

एक समय वे दोनों मामा-भानजे वि‍देहराज के यज्ञमण्‍डल में गये। दोनों ही ब्राह्मण अनुपम वि‍द्वान थे। वहाँ शास्‍त्रार्थ होने पर उन दोनों ने अपने (वि‍पक्षी) बन्‍दी को जीत लि‍या। कुन्‍तीनन्‍दन! वि‍प्रशि‍रोमणी अष्‍टावक्र वाद-वि‍वाद में बड़े नि‍पुण थे। उन्‍होंने बाल्‍यावस्‍था में ही महाराज जनक के यज्ञमण्‍डल में पधारकर अपने प्रति‍वादी बन्‍दी को पराजि‍त करके नदी में डलवा दि‍या था। वे अष्‍टावक्र मुनि‍ जि‍न महात्‍मा उद्दालक के दौहि‍त्र (नाती) बताये जाते हैं, उन्हीं का यह परम पवित्र आश्रम है। तुम अपने भाइयों सहि‍त इसमें प्रवेश करके कुछ देर तक उपासना (भगवच्‍चि‍न्तन) करो।

युधिष्ठिर ने पूछा- लोमश जी! उन ब्रह्मर्षि‍ का कैसा प्रभाव था, जि‍न्‍होंने बन्‍दी जैसे सुप्रसि‍द्ध वि‍द्वान को भी जीत लि‍या। वे कि‍स कारण से अष्‍टावक्र (आठों अंगों से टेढ़े-मेढ़े) हो गये। यह सब बातें मुझे यथार्थ रूप में बताइये।

लोमश जी कहते हैं- राजन! महर्षि‍ उद्दालक का कहोड़ नाम से वि‍ख्‍यात एक शि‍ष्‍य था, जो बड़े संयम-नि‍यम से रहकर आचार्य की सेवा कि‍या करता था। उसने गुरु की आज्ञा के अंदर रहकर दीर्घकाल तक अध्‍ययन कि‍या। वि‍प्रवर ‘कहोड़’ एक वि‍नीत शि‍ष्‍य की भाँति‍ उद्दालक मुनि‍ की परि‍चर्या में संलग्‍न रहते थे। गुरु ने शि‍ष्‍य की उस सेवा के महत्‍व को समझकर शीघ्र ही उन्‍हें सम्‍पूर्ण वेद शास्‍त्रों का ज्ञान करा दि‍या और अपनी पुत्री सुजाता को भी उन्‍हें पत्‍नीरूप में समर्पित कर दि‍या। कुछ काल के बाद सुजाता गर्भवती हुई, उसका वह गर्भ अग्‍नि‍ के समान तेजस्‍वी था।

एक दि‍न स्‍वाध्‍याय में लगे हुए अपने पि‍ता कोहड़ मुनि‍ से उस गर्भस्थ बालक ने कहा, ‘पि‍ताजी! आप रात भर वेदपाठ करते हैं तो आपका वह अध्‍यायन अच्‍छी प्रकार से शुद्ध उच्‍चारणपूर्वक नहीं हो पाता’। शि‍ष्‍यों के बीच में बैठे हुए महर्षि‍ कहोड़ इस प्रकार उलाहना सुनकर अपमान अनुभव करते हुए कुपि‍त हो उठे और उस गर्भस्थ बालक को शाप देते हुए बोले, ‘अरे! तू अभी पेट में रहकर ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी बातें बोलता है, अत: तू आठों अंगों से टेढ़ा हो जायेगा’। उस शाप के अनुसार वे महर्षि‍ आठों अंगों से टेढ़े होकर पैदा हुए। इसलि‍ये अष्टावक्र नाम से उनकी प्रसि‍द्धि‍ हुई। श्‍वेतकेतु उनके मामा थे, परंतु अवस्‍था में उन्‍हीं के बराबर थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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