महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-16

सप्तदश (17) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध करते हुए मुनिवृत्ति की और ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा

युधिष्ठिर बोले- भीमसेन! असंतोष, प्रमाद, मद, राग, अशान्ति, बल, मोह, अभिमान, तथा उद्वेग- ये सभी पाप तुम्हारे भीतर घुस गये हैं, इसीलिये तुम्हें राज्य की इच्छा होती है। भाई! सकाम कर्म और बन्धन से[1] रहित होकर सर्वथा मुक्त, शान्त एवं सुखी हो जाओ। जो सम्राट इस सारी पृथ्वी का अकेला ही शासन करता है, उसके पास भी एक ही पेट होता है; अतः तुम किसलिये इस राज्य की प्रशंसा करते हो? भरतश्रेष्ठ! इस इच्छा को एक दिन में या कई महीनों में भी पूर्ण नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं, सारी आयु प्रयत्न करने पर भी इस अपूर्णीय इच्छा की पूर्ति होनी असम्भव है। जैसे आग में जितना ही ईधन डालो, वह प्रज्ज्वलित होती जायगी और ईधन न डाला जाय तो वह अपने-आप बुझ जाती है।

इसी प्रकार तुम भी अपना आहार कम करके इस जगी हुई जठराग्नि को शान्त करो। अज्ञानी मनुष्य अपने पेट के लिये ही बहुत हिंसा करता है; अतः तुम पहले अपने पेट को ही जीतो। फिर ऐसा समझा जायगा कि इस जीती हुई पृथ्वी के द्वारा तुमने कल्याण पर विजय पा ली है। भीमसेन! तुम मनुष्यों के कामभोग और ऐश्वर्य वड़ी प्रशंसा करते हो; परंतु जो भोगरहित हैं और तपस्या करते-करते निर्बल हो गये हैं, वे ऋषि-मुनि ही सर्वोत्तम पद को प्राप्त करते हैं। राष्ट्र के योग और क्षेम, धर्म तथा अधर्म सब तुममें ही स्थित हैं। तुम इस महान् भार से मुक्त हो जाओ और त्याग का ही आश्रय लो। बाघ एक ही पेट के लिये बहुत से प्राणियों की हिंसा करता है, दूसरे लोभी और मुर्ख पशु भी उसी के सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं। यत्नशील साधक विषयों का परित्याग करके संन्यास ग्रहण कर लेता है, तो वह संतुष्ट हो जाता है; परंतु विषय भोगों से सम्पन्न समृद्धिशाली राजा कभी संतुष्ट नहीं होते। देखो, इन दोनों के विचारों में कितना अन्तर है? जो लोग पत्ते खाकर रहते हैं, जो पत्थर पर पीसकर अथवा दातों से ही चबाकर भोजन करने वाले हैं (अर्थात् जो चक्की का पीसा और ओखली का कूटा नहीं खाते हैं) तथा जो पानी या हवा पीकर रह जाते हैं, उन तपस्वी पुरुषों ने ही नरक पर विजय पायी है।

जो राजा इस सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन करता है और जो सब कुछ छोड़कर पत्थर और सोने को समान समझने वाला है- इन दोनों में से वह त्यागी मुनि ही कृतार्थ होता है, राजा नहीं। अपने मनोरथों के पीछे बड़े-बड़े कार्यों का आरम्भ न करो, आशा तथा ममता न रखो और उस शोकरहित पद का आश्रय लो, जो इहलोक और परलोक में भी अविनाशी है। जिन्होंने भोगों का परित्याग कर दिया है, वे तो कभी शोक नहीं करते हैं; फिर तुम क्यों भोगों की चिन्ता करते हो? सारे भोगों का परित्याग कर देने पर तुम मिथ्यावाद से छूट जाओगे। देवयान और पित्रृयान- ये दो परलोक प्रसिद्ध मार्ग हैं। जो सकाम यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले हैं, वे पितृयान से जाते हैं और मोक्ष के अधिकारी देवयान मार्ग से। महर्षिगण तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा स्वाध्याय के बल से देह त्याग के पश्चात् ऐसे लोक में पहुँच जाते हैं, जहाँ मृत्यु का प्रवेश नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आमिषं बन्धनं लोके कर्मेहोक्तं तथाभिषम्।
    ताम्यां विमुक्त: पापाभ्यां पदमाप्नोति तत्परम्॥

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