महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-12

एकषष्टितम (61) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्‍युपर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: एकषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

राजा दिलीप का उत्‍कर्ष

  • नारद जी कहते हैं– सृंजय! इलविला के पुत्र राजा दिलीप की भी मृत्यु सुनी गयी है, जिनके सौ यज्ञों में लाखों ब्राह्मण नियुक्‍त थे। वे सभी ब्राह्मण वेदों के कर्मकाण्‍ड और ज्ञानकाण्‍ड के तात्‍पर्य को जानने वाले, यज्ञकर्ता तथा पुत्र-पौत्रों से सम्‍पन्‍न थे। (1)
  • पृथ्‍वीपति दिलीप ने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञ में धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न इस सारी पृथ्‍वी को ब्राह्मणो के लिये दान कर दिया था। (2)
  • राजा दिलीप के यज्ञों में सोने की सड़कें बनायी गयी थीं। इन्‍द्र आदि देवता मानो धर्म की प्राप्ति के लिये उन्‍हें अलंकृत करते हुए उनके यहाँ पधारते थे। (3)
  • वहाँ पर्वतों के समान विशालकाय सहस्‍त्रों गजराज विचरा करते थे। राजा का सभामण्‍डप सोने का बना हुआ था, जो सदा देदीप्‍यमान रहता था। (4)
  • वहाँ रस की नहरें बहती थीं और अन्‍न के पहाड़ों जैसे ढेर लगे हुए थे। राजन! उनके यज्ञ में सहस्‍त्र व्‍याम-विस्‍तृत सुवर्णमय यूप सुशोभित होते थे। (5)
  • उनके यूप में सुवर्णमय चषाल[1] और प्रचषाल लगे हुए थे। उनके यहाँ तेरह हजार अप्‍सराएँ नृत्‍य करती थीं। (6)
  • उस समय वहाँ साक्षात गन्‍धर्वराज विश्वावसु प्रेमपूर्वक वीणा बजाते थे। समस्‍त प्राणी राजा दिलीप को सत्‍यवादी मानते थे। (7)
  • उनके यहाँ आये हुए अतिथि ‘रागखाण्‍डव’ नामक मोदक और विविध भोज्‍य पदार्थ खाकर मतवाले हो सड़कों पर लेट जाते थे। मेरे मत में उनके यहाँ यह एक अद्भुत बात थी, जिसकी दूसरे राजाओं से तुलना नहीं हो सकती थी। राजा दिलीप युद्ध करते समय जल में भी चले जाते तो उनके रथ के पहिये वहाँ डूबते नहीं थे। (8)
  • सुदृढ धनुष धारण करने वाले तथा प्रचुर दक्षिणा देने वाले सत्‍यवादी राजा दिलीप का जो लोग दर्शन कर लेते थे, वे मनुष्‍य भी स्‍वर्गलोक के अधिकारी हो जाते थे।(9)
  • खट्वांग[2] के भवन में ये पांच प्रकार के शब्‍द कभी बंद नहीं होते थे वेद-शास्‍त्रों के स्‍वाध्‍याय का शब्‍द, धनुष की प्रत्‍यंचा की ध्‍वनि तथा अतिथियों के लिये कहे जाने वाले ‘खाओ, पीओ और अन्‍न ग्रहण करो’ ये तीन शब्‍द। (10)
  • श्‍वैत्‍य सृंजय! वे दिलीप धर्म, ज्ञान, वैराग्‍य और ऐश्‍वर्य– इन चारों कल्‍याणकारी गुणों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे, तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मर गये, तब औरों की क्‍या बात है? अत: जिसने अभी यज्ञ नहीं किया, दक्षिणाएँ नहीं बाँटीं, अपने उस पुत्र के लिये तुम शोक न करो– इस प्रकार नारद जी ने कहा। (11-12)

इस प्रकार श्रीमहाभारत के द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक इकसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यज्ञीय यूप या स्तम्भ के ऊपर लगाये जाने वाले काठ के छल्ले को 'चषाल' कहते हैं, एसी का उत्कृष्ट रूप 'प्रचलाष' है।
  2. दिलीप

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