महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 180 श्लोक 1-22

अशीत्यधिकशततम (180) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: अशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍म और परशुराम का घोर युद्ध

  • भीष्‍मजी कहते हैं- राजन! तदनन्तर अपने कार्य में कुशल एवं सम्मानित सारथि ने अपने, घोड़ों के तथा मेरे भी शरीर में चुभे हुए बाणों को निकाला। (1)
  • घोडे़ टहलाये गये और लोट-पोट कर लेने पर नहलाये गये; फिर उन्हें पानी पिलाया गया, इस प्रकार जब वे स्वस्थ और शान्त हुए, तब प्रात:काल सूर्योदय होने पर पुन: युद्ध आरम्भ हुआ। (2)
  • मुझे रथ पर बैठकर कवच धारण किये शीघ्रतापूर्वक आते देख प्रतापी परशुरामजी ने अपने रथ को अत्यन्त सुसज्जित किया। (3)
  • तदनन्तर युद्ध की इच्छा वाले परशुरामजी को आते देख मैं अपना श्रेष्‍ठ धनुष छोड़कर सहसा रथ से उतर पड़ा। (4)
  • भारत! पूर्ववत गुरु को प्रणाम करके अपने रथ पर आरूढ़ हो युद्ध की इच्छा से परशुरामजी के सामने मैं निर्भय होकर डट गया। (5)
  • तदनन्तर मैंने उन पर बाणों की भारी वर्षा की। फिर उन्होंने भी बाणों की वर्षा करने वाले मुझ भीष्‍म पर बहुत-से बाण बरसाये। (6)
  • तत्पश्‍चात जमदग्निकुमार ने पुन: अत्यन्त क्रुद्ध होकर मुझ पर प्रज्वलित मुख वाले सर्पों की भाँति तेज किये हुए भयानक बाण चलाये। (7)
  • राजन! तब मैंने सहसा तीखी धार वाले भल्ल नामक बाणों से आकाश में ही उन सबके सैकड़ों और हजारों टुकडे़ कर दिये। यह क्रिया बारंबार चलती रही। (8)
  • इसके पश्चात प्रतापी परशुरामजी ने मेरे ऊपर दिव्यास्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया; परंतु महाबाहो! मैंने उनसे भी अधिक पराक्रम प्रकट करने की इच्छा रखकर उन सब अस्त्रों का दिव्यास्त्रों द्वारा ही निवारण कर दिया। (9)
  • उस समय आकाश में चारों ओर बड़ा कोलाहल होने लगा। इसी समय मैंने जमदग्निकुमार पर वायव्यास्त्र का प्रयोग किया। भारत! परशुरामजी ने गुह्यकास्त्र द्वारा मेरे उस अस्त्र को शान्त कर दिया। (10-11)
  • तत्पश्‍चात मैंने मन्त्र से अभिमन्त्रित करके आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया; किंतु भगवान परशुराम ने वारुणास्त्र चलाकर उसका निवारण कर दिया। (12)
  • इस प्रकार मैं परशुरामजी के दिव्यास्त्रों का निवारण करता और शत्रुओं का दमन करने वाले दिव्यास्त्रवेत्ता तेजस्वी परशुराम भी मेरे अस्त्रों का निवारण कर देते थे। (13)
  • राजन! तत्पश्‍चात क्रोध में भरे हुए प्रतापी विप्रवर परशुराम ने मुझे बायें लेकर मेरे वक्ष:स्थल को बाण द्वारा बींध दिया। (14)
  • भरतश्रेष्‍ठ! उससे घायल होकर मैं उस श्रेष्‍ठ रथ पर बैठ गया, उस समय मुझे मुर्च्छित अवस्था में देखकर सारथि शीघ्र ही अन्यत्र हटा ले गया। (15)
  • भरतश्रेष्‍ठ! परशुरामजी के बाण से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण मुझे बड़ी व्याकुलता हो रही थी। मैं अत्यन्त घायल और अचेत होकर रणभूमि से दूर हट गया था। भारत! इस अवस्था में मुझे देखकर परशुरामजी के अकृतव्रण आदि सेवक तथा काशिराज की कन्या अम्बा ये सब-के-सब अत्यन्त प्रसन्न हो कोलाहल करने लगे। (16-17)
  • इतने ही में मुझे चेत हो गया और सब कुछ जानकर मैंने सारथि से कहा- ‘सूत! जहाँ परशुरामजी हैं, वहीं चलो। मेरी पीड़ा दूर हो गयी है और अब मैं युद्ध के लिये सुसज्जित हूँ।' (18)
  • कुरुनन्दन! तब सारथि ने अत्यन्त शोभाशाली अश्‍वों द्वारा, जो वायु के समान वेग से चलने के कारण नृत्य करते-से जान पड़ते थे, मुझे युद्धभूमि में पहुँचाया। (19)
  • कौरव! तब मैंने क्रोध में भरे हुए परशुरामजी के पास पहुँचकर उन्हें जीतने की इच्छा से स्वयं भी कुपित होकर उनके ऊपर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। (20)
  • किंतु परशुरामजी ने सीधे लक्ष्‍य की ओर जाने वाले उन बाणों के आते ही एक-एक को तीन-तीन बाणों से तुरंत काट दिया। (21)
  • इस प्रकार मेरे चलाये हुए वे सब सैकड़ों और हजारों तीखे बाण परशुरामजी के सायकों से कटकर दो-दो टूक होकर नष्‍ट हो गये। (22)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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