महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 65 श्लोक 1-16

पंचषष्टितम (65) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताका संवाद

इन्द्र कहते हैं-राजन्! इस प्रकार क्षात्रधर्म सब धर्मों में श्रेष्ठ और शक्तिशाली है। यह सभी धर्मों से सम्पन्न बताया गया है। तुम जैसे लोक हितैषी उदार पुरुषों को सदा इस क्षात्रधर्म का ही पालन करना चाहिये। यदि इसका पालन नहीं किया जायगा तो प्रजाका नाश हो जायगा। समस्त प्राणियों पर दया करने वाले राजा को उचित है कि वह नीचे लिखे हुए कार्यों को ही श्रेष्ठ धर्म समझे। वह पृथ्वीका संस्कार करावे, राजसूयअश्वमेधादि यज्ञों में अवभृतस्नान करे, भिक्षाका आश्रय न ले, प्रजाका पालन करे और संग्रामभूमि में शरीरको त्याग दे। ऋषि-मुनि त्यागको ही श्रेष्ठ बताते हैं। उसमें भी युद्ध में राजालोग जो अपने शरीरका त्याग करते हैं, वह सबसे श्रेष्ठ त्याग है। सदा राजधर्ममें संलग्न रहनेवाले समस्त भूमिपालोंने जिस प्रकार युद्धमें प्राणत्याग किया है, वह सब तुम्हारी आँखों के सामने है। क्षत्रिय ब्रह्मचारी धर्मपालनकी इच्छा रखकर अनेक शास्त्रों के ज्ञान का उपार्जन तथा गुरुशुश्रूषा करते हुए अकेला ही नित्य ब्रह्मचर्य-आश्रम के धर्म का आचरण करे। यह बात ऋषिलोग परस्पर मिलकर कहते हैं।

जनसाधरण के लिये व्यवहार आरम्भ होने पर राजा प्रिय और अप्रिय की भावना का प्रयत्न पूर्वक परित्याग करे। भिन्न-भिन्न उपायों, नियमों, पुरुषार्थों तथा सम्पूर्ण उद्योंगो के द्वारा चारों वर्णों की स्थापना एवं रक्षा करने के कारण क्षात्रधर्म एवं गृहस्थ-आश्रम को ही सबसे श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण धर्मों से सम्पन्न बताया गया है; क्योंकि सभी वर्णों के लोग उस क्षात्र-धर्म के सहयोग से ही अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। क्षत्रिय धर्म के न होने से उन सब धर्म का पालन करते हैं। क्षत्रिय धर्म के न होने से उन सब धर्मों का प्रयोजन विपरीत होता है; ऐसा कहते हैं। जो लोग सदा अर्थ साधन में ही आसक्त होकर मर्यादा छोड़ बैठते हैं, उन मनुष्यों को पशु कहा गया है। क्षत्रिय-धर्म अर्थ की प्राप्ति कराने के साथ-साथ उत्तम नीति का ज्ञान प्रदान करता है; इसलिये वह आश्रम-धर्मों से भी श्रेष्ठ है। तीनों वेदोंके विद्वान् ब्राह्मणों के लिये जो यज्ञादि कार्य विहित हैं तथा उनके लिये जो चारों आश्रम बताये गये हैं-उन्हीं को ब्राह्मण का सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा गया है। इसके विपरीत आचरण करने वाला ब्राह्मण शूद्र के समान ही शस्त्रों द्वारा वध के योग्य है।

राजन्! चारों आश्रमों के जो धर्म हैं तथा वेदों में जो धर्म बताये गये हैं, उन सबका अनुसरण ब्राह्मण को ही करना चाहिये। दूसरा कोई शूद्र आदि कभी किसी तरह भी उन धर्मों को नहीं जान सकता। जो ब्राह्मण इसके विपरीत आचरण करता है, उसके लिये ब्राह्मणोचित वृत्ति की व्यवस्था नहीं की जाती। कर्म से ही धर्म की वृद्धि होती है। जो जिस प्रकार के धर्म को अपनाता है, वह वैसा ही हो जाता है। समस्त वर्णों में स्थित हुए जो ये धर्म हैं, उन्हें क्षत्रियों को उन्नति के शिखर पर पहँचना चाहिये। यही क्षत्रिय धर्म है, इसीलिये राजधर्म श्रेष्ठ है। दूसरे धर्म इस प्रकार श्रेष्ठ नहीं हैं। मेरे मतमें वीर क्षत्रियों के धर्मों में बल और पराक्रम की प्रधानता है। मान्धाता बाले-भगवन्! मेरे राज्यमें यवन, किराता, गान्धार, चीन, शबर, बर्बर, शक, तुषार, कक्ड, पल्हव, आन्ध्र, मन्द्रक, पौंड्र, पुलिन्द, रमठ और काम्बोज देशों के निवासी म्लेच्छगण सब ओर निवासी करते हैं, कुछ ब्रह्मणों और क्षत्रियों के भी संतानें हैं; कुछ वैश्य और शूद्र भी हैं, जो धर्म से गिर गये हैं। ये सब-के-सब चोरी और डकैती से जीविका चलाते हैं। ऐसे लोग किस प्रकार धर्मोका आचरण करेंगें? मेरे-जैसे राजाओं को इन्हें किस तरह मर्यादा के भीतर स्थापित करना चाहिये। भगवन्! सुरेश्वर! यह मैं सुनना चाहता हुँ। आप मुझे यह सब बताइये; क्योंकि आप ही हम क्षत्रियों के बन्धु हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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