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महाभारत: उद्योग पर्व: षट्-त्रिंश (36 वाँ) अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
दत्तात्रेय और साध्य देवताओं के संवाद का उल्लेख करके महाकुलीन लोगों का लक्षण बतलाते हुए विदुर का धृरातष्ट्र को समझाना
- विदुरजी कहते हैं- राजन! इस विषय में लोग दत्तात्रेय और साध्य देवताओं के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं; यह मेरा भी सुना हुआ है। (1)
- प्राचीन काल की बात है, उत्तम व्रत वाले महाबुद्धिमान महर्षि दत्तात्रेयजी हंस (परमहंस) रूप से विचर कर रहे थे; उस समय साध्य देवताओं ने उनसे पूछा। (2)
- साध्य बोले- महर्षे! हम सब लोग साध्य देवता हैं, केवल आपको देखकर हम आपके विषय में कुछ अनुमान नहीं कर सकते। हमें तो आप शास्त्रज्ञान से युक्त, धीर एवं बुद्धिमान जान पड़ते हैं; अत: हम लोगों को अपनी विद्वत्तापूर्ण उदार वाणी सुनाने की कृपा करें। (3)
- परमहंस ने कहा- साध्यदेवताओ! मैंने सुना है कि धैर्य-धारण, मनोनिग्रह तथा सत्य-धर्मों का पालन ही कर्तव्य है; इसके द्वारा पुरुष को चाहिये कि हृदय की सारी गांठ खोलकर प्रिय और अप्रिय को अपने आत्मा के समान समझे। (4)
- दूसरों से गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली न दे।[1] सहन करने वाले का रोका हुआ क्रोध ही गाली देने वाले को जला डालता है और उसके पुण्य को भी ले लेता है। (5)
- दूसरों को न तो गाली दे और न उनका अपमान करे, मित्रों से द्रोह तथा नीच पुरुषों की सेवा न करे, सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हो, रूखी तथा रोषभरी वाणी का परित्याग करे। (6)
- इस जगत में रूखी बातें मनुष्यों के मर्मस्थान, हड्डी, हृदय तथा प्राणों को दग्ध करती रहती हैं; इसलिये धर्मानुरागी पुरुष जलाने वाली रूखी बातों का सदा के लिये परित्याग कर दे। (7)
- जिसकी वाणी रूखी और स्वभाव कठोर है, जो मर्मस्थान पर आघात करता है और वाग्बाणों से मनुष्यों को पीड़ा पहुँचाता हैं, उसे ऐसा समझना चाहिये कि वह मनुष्यों में महादरिद्र है और वह अपने मुख से दरिद्रता अथवा मौत को बांधे हुए ढो रहा है। (8)
- यदि दूसरा कोई इस मनुष्य को अग्नि और सूर्य के समान दग्ध करने वाले अत्यंत तीखे वाग्बाणों से बहुत चोट पहुँचावे तो वह विद्वान पुरुष चोट खाकर अत्यंत वेदना सहते हुए भी ऐसा समझे कि वह मेरे पुण्यों को पुष्ट कर रहा है। (9)
- जैसे वस्त्र जिस रंग में रंगा जाय,वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोर की सेवा करता है तो वह उन्हीं के वश में हो जाता है। उस पर उन्हीं का रंग चढ़ जाता है। (10)
- जो स्वयं किसी के प्रति बुरी बात नहीं कहता, दूसरों से भी नहीं कहलाता, बिना मार खाये स्वयं न तो किसी को मारता है और न दूसरों से ही मरवाता है, मार खाकर भी अपराधी को जो मारना नहीं चाहता,[2] देवता भी उसके आगमन की बाट जोहते रहते हैं। (11)
- बोलने से न बोलना ही अच्छा बताया गया है,[3] सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है यानि मौन की अपेक्षा भी अधिक लाभपद्र है। (सत्य और) प्रिय बोलना वाणी- की तीसरी विशेषता है। यदि सत्य और प्रिय के साथ ही धर्म-सम्मत भी कहा जाय, तो वह वचन की चौथी विशेषता है।[4]।(12)
- मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है, जैसे लोगों की सेवा करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है। (13)
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