महाभारत वन पर्व अध्याय 180 श्लोक 1-20

अशीत्यधिकशततम (180) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का भीमसेन के पास पहुँचना और सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सर्प के शरीर से बंधे हुए अपने प्रिय भाई भीमसेन के पास पहुँचकर परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर ने इस प्रकार पूछा- 'कुन्तीनन्दन! तुम कैसे इस विपत्ति में फंस गये? और यह पर्वत के समान लम्बा-चौड़ा श्रेष्ठ नाग कौन है?'

अपने बड़े भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर को वहाँ उपस्थित देख भाई भीमसेन ने अपने पकड़े जाने आदि की सारी चेष्टाएं कह सुनायी। भीम बोले- 'आर्य! ये वायुभक्षी सर्प के रूप में बैठे हुए महान् शक्तिशाली साक्षात् राजर्षि नहुष हैं, इन्होंने मुझे अपना आहार बनाने के लिये पकड़ रखा है।' तब युधिष्ठिर ने सर्प से पूछा- 'आयुष्मन्! आप मेरे इस अनन्त पराक्रमी भाई को छोड़ दें। हम लोग आपकी भूख मिटाने के लिये दूसरा भोजन देंगे।'

सर्प बोला- 'राजन्! यह राजकुमार मेरे मुख के पास स्वयं आकर मुझे आहार रूप में प्राप्त हुआ है। तुम जाओ, यहाँ ठहरना उचित नहीं है; अन्यथा कल तक तुम भी मेरे आहार बन जाओगे। महाबाहो! मेरा यह नियम है कि मेरी अधिकृत भूमि के भीतर जो भी आ जायेगा, वह मेरा भक्ष्य बन जायेगा। तात्! इस समय तुम भी मेरे अधिकार की सीमा में ही आ गये हो। दीर्घकाल तक उपवास करने के बाद आज यह तुम्हारा छोटा भाई मुझे आहार रूप में प्राप्त हुआ है, अतः न तो मैं इसे छोडूंगा और न इसके बदले में दूसरा आहार ही लेना चाहता हूँ।'

युधिष्ठिर ने कहा- 'सर्प! तुम कोई देवता हो या दैत्य, अथवा वास्तव में सर्प ही हो? सच बताओ, तुमसे युधिष्ठिर प्रश्न कर रहा है। भुजंगम! किसलिये तुमने भीमसेन को ही अपना ग्रास बनाया है? बोलो, तुम्हारे लिये क्या ला दिया जाये? अथवा तुम्हें किस बात का ज्ञान करा दिया जाये? जिससे तुम प्रसन्न होओगे। मैं कौन-सा आहार दे दूं अथवा किस उपाय का अवलम्बन करूं, जिससे तुम इन्हें छोड़ सकते हो?'

सर्प बोला- 'निष्पाप नरेश! मैं पूर्वजन्म में तुम्हारा विख्यात पूर्वज नहुष नाम का राजा था। चन्द्रमा से पांचवीं पीढ़ी में जो आयु नामक राजा हुए थे, उन्हीं का मैं पुत्र हूँ। मैंने अनेक यज्ञ किये, तपस्या की, स्वाध्याय किया तथा अपने मन और इन्द्रियों के संयमरूप योग का अभ्यास किया। इन सत्कर्मों से तथा अपने पराक्रम से भी मुझे तीनों लोकों का निष्कण्टक साम्राज्य प्राप्त हुआ था। तब उस ऐश्वर्य को पाकर मेरा अहंकार बढ़ गया। मैंने सहस्रों ब्राह्मणों से अपनी पालकी ढुलवायी। तदनन्तर ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हो मैंने बहुत-से ब्राह्मणोंका अपमान किया। पृथ्वीपते! इससे कुपित हुए महर्षि अगस्त्य ने मुझे इस अवस्था को पहुँचा दिया। पाण्डुनन्दन नरेश! उन्हीं महात्मा अगस्त्य की कृपा से आज तक मेरी स्मरण शक्ति मुझे छोड़ नहीं सकी है (मेरी स्मृति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है)। महर्षि के शाप के अनुसार दिन के छठे भाग में तुम्हारा यह छोटा भाई मुझे भोजन के रूप में प्राप्त हुआ है। अतः मैं न तो उसे छोडूंगा ओर न इसके बदले दूसरा आहार लेना चाहता हूँ। परंतु एक बात है, यदि तुम मेरे पूछे हुए कुछ प्रश्नों का अभी उत्तर दे दोगे, तो उसके बाद मैं तुम्हारे भाई भीमसेन को छोड़ दूंगा।

युधिष्ठिर ने कहा- सर्प! तुम इच्छानुसार प्रश्न करो। मैं तुम्हारी बात का उत्तर दूंगा। भुजंगम! यदि हो सका, तो तुम्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करूंगा। सर्पराज! ब्राह्मण को इस जीवन में जो कुछ जानना चाहिये, वह केवल तत्त्व तुम जानते हो या नहीं। यह सुनकर मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दूंगा।

सर्प बोला- 'राजा युधिष्ठिर! यह बताओ कि ब्राह्मण कौन है और उसके लिये जानने योग्य तत्त्व क्या है? तुम्हारी बातें सुनने से मुझे ऐसा अनुमान होता है कि तुम अतिशय बुद्धिमान हो।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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