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महाभारत: उद्योग पर्व: एकपंचाशदधिकततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
पाण्डव पक्ष के सेनापति का चुनाव तथा पाण्डव-सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
- वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर धर्म में ही मन लगाये रखने वाले धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान के सामने ही अपने भाइयों से कहा- (1)
- कौरवसभा में जो कुछ हुआ है वह सब वृतान्त तुम लोगों ने सुन लिया। फिर भगवान श्रीकृष्ण ने भी जो बात कही है, उसे भी अच्छी तरह समझ लिया होगा। (2)
- अत: नरश्रेष्ठ वीरो! अब तुम लोग भी अपनी सेना का विभाग करो। ये सात अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हो गयी हैं, जो अवश्य ही हमारी विजय कराने वाली होंगी। (3)
- इन सातों अक्षौहिणियों के सात विख्यात सेनापति हैं, उनके नाम बताता हूँ, सुनो। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, सात्यकि, चेकितान और पराक्रमी भीमसेन। ये सभी वीर हमारे लिये अपने शरीर का भी त्याग कर देने को उद्यत हैं; अत: ये ही पाण्डव सेना के संचालक होने योग्य हैं। (4-5)
- ये सब-के-सब वेदवेत्ता, शूरवीर, उत्तम व्रत का पालन करने वाले, लज्जशील, नीतिज्ञ और युद्धकुशल हैं। (6)
- इन सबने धनुर्वेद में निपुणता प्राप्त की है तथा ये सब प्रकार के अस्त्रों द्वारा युद्ध करने में समर्थ हैं। अब यह विचार करना चाहिये कि इन सातों का भी नेता कौन हो, जो सभी सेना-विभागों को अच्छी तरह जानता हो तथा युद्ध में बाणरूपी ज्वालाओं से प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी भीष्म का आक्रमण सह सकता हो। पुरुषसिंह कुरुनन्दन सहदेव! पहले तुम अपना विचार प्रकट करो। हमारा प्रधान सेनापति होने योग्य कौन है। (7-8)
- सहदेव बोले- जो हमारे सम्बन्धी हैं, दु:ख में हमारे साथ एक होकर रहने वाले और पराक्रमी भूपाल हैं, जिन धर्मज्ञ वीर का आश्रय लेकर हम अपना राज्यभाग प्राप्त कर सकते हैं तथा जो बलवान, अस्त्रविद्या में निपुण और युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले हैं, वे मत्स्यनरेश विराट संग्रामभूमि में भीष्म तथा अन्य महारथियों का सामना अच्छी तरह सहन कर सकेंगे। (9-10)
- वैशम्पयानजी कहते हैं- जनमेजय! सहदेव के इस प्रकार कहने पर प्रवचन कुशल नकुल ने उनके बाद यह बात कही- (11)
- जो अवस्था, शास्त्रज्ञान, धैर्य कुल और स्वजन समूह सभी दृष्टियों से बड़े हैं, जिनमें लज्जा, बल और श्री तीनों विद्यमान हैं, जो समस्त शास्त्रों के ज्ञान में प्रवीण हैं, जिन्हें महर्षि भरद्वाज से अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त हुई है, जो सत्यप्रतिज्ञ एवं दुर्धर्ष योद्धा हैं, महाबली भीष्म और द्रोणाचार्य से सदा स्पर्धा रखते हैं, जो समस्त राजाओं के समूह की प्रशंसा के पात्र हैं और युद्ध के मुहाने पर खडे़ हो समस्त सेनाओं की रक्षा करने में समर्थ हैं, बहुत-से पुत्र पौत्रों द्वारा घिरे रहने के कारण जिनकी सैकडों शाखाओं से सम्पन्न वृक्ष की भाँति शोभा होती है, जिन महाराज ने रोषपूर्वक द्रोणाचार्य के विनाश के लिये पत्नी सहित घोर तपस्या की है, जो संग्रामभूमि में सुशोभित होने वाले शूरवीर हैं और हम लोग पर सदा ही पिता के समान स्नेह रखते हैं वे हमारे श्वसुर भूपालशिरोमणि द्रुपद हमारी सेना के प्रमुख भाग का संचालन करें। मेरे विचार से राजा द्रुपद ही युद्ध के लिये सम्मुख आये हुए द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह का सामना कर सकते हैं; क्योंकि वे दिव्याशास्त्रों के ज्ञाता और द्रोणाचार्य के सखा हैं। (12-17)
- माद्रीकुमारों के इस प्रकार अपना विचार प्रकट करने पर कुरुकुल को आनन्दित करने वाले इन्द्र के समान पराक्रमी, इन्द्रपुरुष सव्यसाची अर्जुन ने इस प्रकार कहा। (18)
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