द्विपंचाशदधिकशततम (152) अध्याय: आदि पर्व (हिडिम्बवध पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्विपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब यह सोचकर कि मेरी बहिन को गये बहुत देर हो गयी, राक्षसराज हिडिम्ब उस वृक्ष से उतरा और शीघ्र ही पाण्डवों के पास आ गया। उसकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं, भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं, केश ऊपर को उठे हुए थे और विशाल मुख था। उसके शरीर का रंग काला था, मानों मेघों की काली घटा छा रही हो। तीखे दाढ़ों वाला वह राक्षस बड़ा भयंकर जान पड़ता था। देखने में विकराल उस राक्षस हिडिम्ब को आते देखकर ही हिडिम्बा भय से थर्रा उठी और भीमसेन से इस प्रकार बोली-जो निर्दोष बड़े भाई के अविवाहित रहते हुए ही अपना विवाह कर लेता है, वह ‘परिवो’ कहलाता है, शास्त्रों में वह निन्दनीय माना गया है। (देखिये) यह दुष्टात्मा नरभक्षी राक्षस क्रोध में भरा हुआ इधर ही आ रहा है, अत: मैं भाइयों सहित आपसे जो कहती हूं, वैसा कीजिये। वीर! मैं इच्छानुसार चल सकती हूं, मुझमें राक्षसों का सम्पूर्ण बल हैं। आप मेरे इस कटि प्रदेश या पीठ पर बैठ जाइये। मैं आपको आकाश-मार्ग से ले चलूंगी। परतंप! आप इन सोये हुए भाइयों और माता जी को भी जगा दिजिये। मैं आप सब लोगों को लेकर आकाश-मार्ग से उड़ चलूंगी। भीमसेन बोले- सुन्दरी! तुम डरों मत, मेरे सामने यह राक्षस कुछ भी नहीं है। सुमध्यमे! मैं तुम्हारे देखते-देखते इसे मार डालूंगा। भीरु! यह नीच राक्षस युद्ध में मेरे आक्रमण का वेग सह सके, ऐसा बलवान् नहीं है। ये अथवा सम्पूर्ण राक्षस भी मेरा सामना नहीं कर सकते। हाथी की सूंड-जैसी मोटी और सुन्दर गोलाकार मेरी इन दोनों भुजाओं की ओर देखो। मेरी ये जांघे परिघ के समान हैं और मेरा विशाल वक्ष:स्थल भी सुद्दढ़ एवं सुगठित है। शोभने! मेरा पराक्रम (भी) इन्द्र के समान है, जिसे तुम अभी देखोगी। विशाल नितम्बों वाली राक्षसी! तुम मुझे मनुष्य समझकर वहाँ मेरा तिरस्कार न करो। हिडिम्बा ने कहा- नरश्रेष्ठ! आपका स्वरुप तो देवताओं के समान है ही। मैं आपका तिरस्कार नहीं करती। मैं तो इसलिये कहती थी कि मनुष्यों पर ही इस राक्षस का प्रभाव मैं (कई बार) देख चुकी हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस नरभक्षी राक्षस हिडिम्ब ने क्रोध में भरकर भीमसेन की कही हुई उपर्युक्त बातें सुनी। (तत्पश्चात्) उसे अपनी बहिन के मनुष्योचित रुप की ओर द्दष्टिपात किया। उसने अपनी चोटी में फूलों के गजरे लगा रखे थे। उसका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर जान पड़ता था। उसकी भौहें, नासिका, नेत्र और केशान्तभाग सभी सुन्दर थे। नख और त्वचा बहुत ही सुकुमार थी। उसने अपने अंगों को समस्त आभूषणों से विभूषित कर रखा था तथा शरीर पर अत्यन्त सुन्दर महीन साड़ी शोभा पा रही थी। उसे इस प्रकार सुन्दर एवं मनोहर मानव-रुप धारण किये देख राक्षस के मन मे यह संदेह हुआ कि हो-न-हो यह पतिरुप में किसी पुरुष का वरण करना चाहती हैं। यह विचार मन मे ही आते ही वह कुपित हो उठा। कुरुश्रेष्ठ! अपनी बहिन पर उस राक्षस का क्रोध बहुत बढ़ गया था। फिर तो उसने बड़ी-बड़ी आंखें फाड़-फाड़कर उसकी ओर देखते हुए कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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