महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-18

एकोनषष्टितम (59) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


भीष्‍म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा करते हुए उनके सत्‍कार का उपदेश

युधिष्ठिर ने पूछा- कुरुश्रेष्ठ! वेदी के बाहर जो ये दान बताये जाते हैं, उन सब की अपेक्षा आपके मत में कौन दान श्रेष्ठ है? प्रभु! इस विषय में मुझे महान कौतूहल हो रहा है; अतः जिस दान का पुण्य दाता का अनुसरण करता हो, वह मुझे बताइये।

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान देना, संकट के समय उन पर अनुग्रह करना, याचक को उसकी अभीष्ट वस्तु देना तथा प्यास से पीड़ित होकर पानी मांगने वाले को पानी पिलाना उत्तम दान है और जिसे देकर दिया हुआ मान लिया जाये अर्थात जिसमें कहीं भी ममता की गंध न रह जाये, वह दान श्रेष्ठ कहलाता है। भरतश्रेष्ठ! वही दान दाता का अनुसरण करता है। स्वर्णदान, गौदान और भूमि दान- ये तीन पवित्र दान हैं, जो पापी को भी तार देते हैं। पुरुषसिंह! तुम श्रेष्ठ पुरुषों को ही सदा उपर्युक्त पवित्र वस्तुओं का दान किया करो। ये दान मनुष्य को पाप से मुक्त कर देते हैं, इसमें संशय नहीं है। संसार में जो-जो पदार्थ अत्यंत प्रिय माना जाता है तथा अपने घर में भी जो प्रिय वस्तु मौजूद हो, वही-वही वस्तु गुणवान पुरुष को देनी चाहिये। जो अपने दान को अक्षय बनाना चाहता हो, उसके लिये ऐसा करना आवश्‍यक है। जो दूसरों को प्रिय वस्तु का दान देता है और उनका प्रिय कार्य ही करता है, वह सदा प्रिय वस्तुओं को ही पाता है तथा इहलोक और परलोक में भी वह समस्त प्राणियों का प्रिय होता है।

युधिष्ठिर! जो आसक्तिरहित अकिंचन याचक का अहंकारवश अपनी शक्ति के अनुसार सत्कार नहीं करता है, वह मनुष्य निर्दयी है। शत्रु भी यदि दीन होकर शरण पाने की इच्छा से घर पर आ जाये तो संकट के समय जो उस पर दया करता है, वही मनुष्यों में श्रेष्ठ है। विद्वान होने पर भी जिसकी आजीविका क्षीण हो गयी है तथा दीन, दुर्बल और दु:खी है, ऐसे मनुष्य की जो भूख मिटा देता है उस पुरुष के समान पुण्य आत्मा कोई नहीं है। कुन्तीनन्दन! जो स्त्री- पुत्रों के पालन में असमर्थ होने के कारण विशेष कष्ट उठाते हैं; परंतु किसी से याचना नहीं करते और सदा सत्कर्मों में ही संलग्न रहते हैं, उन श्रेष्ठ पुरुषों को प्रत्येक उपाय से सहायता देने के लिये निमंत्रित करना चाहिये। युधिष्ठिर! जो देवताओं और मनुष्यों से किसी वस्तु की कामना नहीं करते, सदा संतुष्ट रहते और जो कुछ मिल जाये, उसी पर निर्वाह करते हैं, ऐसे पूज्य द्विजवरों का दूतों द्वारा पता लगाओ और उन्हें निमंत्रित करो। भारत! वे दु:खी होने पर विषधर सर्प के समान भयंकर हो जाते हैं; अतः उनसे अपनी रक्षा करो। कुरुनन्दन! सेवकों और आवश्‍यक सामग्रियों से युक्त तथा सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति कराने के कारण सुखद गृह निवेदन करके उनका नित्यप्रति पूर्ण सत्कार करो।

युधिष्ठिर! यदि तुम्हारा दान श्रद्धा से पवित्र और कर्तव्य-बुद्धि से ही किया हुआ होगा तो पुण्य कर्मों का अनुष्ठान करने वाले वे धर्मात्मा पुरुष उसे उत्तम मानकर स्वीकार कर लेंगे। युद्ध विजयी युधिष्ठिर! विद्वान, व्रत का पालन करने वाले, किसी धनी का आश्रय लिये बिना ही जीवन निर्वाह करने वाले, अपने स्वाध्याय और तप को गुप्त रखने वाले तथा कठोर व्रत के पालन में तत्पर जो ब्राह्मण हैं, जो शुद्ध, जीतेन्द्रिय तथा अपनी ही स्त्री से संतुष्ट रहने वाले हैं, उनके लिये तुम जो कुछ करोगे, वह जगत में तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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