महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 305 श्लोक 1-15

पंचाधिकत्रिशततम (305) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका और उसका वसिष्‍ठ जी द्वारा उत्तर

राजा जनक ने कहा– भगवन! क्षर औ अक्षर (प्रकति और पुरुष) दोनों का यह संबंध वैसा ही माना जाता है, जैसा कि नारी और पुरुष का दाम्‍पत्‍य-संबंध बताया जाता है। इस जगत में न तो पुरुष के बिना स्‍त्री गर्भ धारण कर सकती है और न स्‍त्री के बिना कोई पुरुष ही किसी शरीर को उत्‍पन्‍न कर सकता है। दोनों पारस्‍परिक संबंध से एक दूसरे के गुणों का आश्रय लेकर ही किसी शरीर का निर्माण होता है। प्राय: सभी योनियों में ऐसी ही स्थित है। जब स्‍त्री ॠतुमती होती है, उस समय रति के लिये पुरुष के साथ उसका संबंध होने से दोनों के गुणों का मिश्रण होने पर शरीर की उत्‍पत्ति होती है। शरीर में पुरुष अर्थात पिता के जो गुण हैं तथा माता के जो गुण हैं, उन्‍हें मैं दृष्‍टान्‍त के तौर पर बता रहा हूँ। हड्डी, स्‍नायु और मज्‍जा- इन्‍हें मैं पिता से प्राप्‍त हुए गुण समझता हूँ तथा त्‍वचा, मांस और रक्‍त- ये माता से पैदा हुए गुण हैं, ऐसा मैंने सुना है।

द्विजश्रेष्‍ठ! यही बात वेद और शास्‍त्र में भी पढी जाती है। वेदों में जो प्रमाण बताया गया है तथा शास्‍त्र में कहे हुए जिस प्रमाण को पढा और सुना जाता है, वह सब ठीक है; क्‍योंकि वेद और शास्‍त्र दोनों ही सनातन प्रमाण हैं। भगवन! इस प्रकार प्रकृति और पुरुष दोनों की एक दूसरे गुणों को आच्‍छादित करके एक दूसरे के गुणों का आश्रय[1] लेते हुए सृष्टि करते हैं। इस तरह मैं इन दोनों को सदा एक दूसरे से सम्‍बद्ध देखता हूँ। अत: पुरुष के लिये मोक्ष धर्म की सिद्धि असम्‍भव जान पड़ती है। अथवा पुरुष के मोक्ष का साक्षात्‍कार कराने वाला कोई दृष्‍टान्‍त हो तो आप उसे बताइये और मुझे ठीक-ठीक समझा दीजिये; क्‍योंकि आपको सदा सब कुछ प्रत्‍यक्ष है। मैं भी मोक्ष की अभिलाषा रखता हूँ और उस परम पद को पाना चाहता हूँ, जो निर्विकार, निराकार, अजर, अमर, नित्‍य और इन्द्रिया‍तीत है तथा जिसे प्राप्‍त हुए पुरुष का कोई शासक नही रहता।

वसिष्‍ठ जी ने कहा– राजन! तुमने वेद और शास्‍त्रों के दृष्‍टान्‍त देकर यह जो कुछ कहा है, वह ठीक है। तुम जैसा समझते हो, वैसी ही बात है। नरेश्‍वर! इसमें संदेह नही कि वेद-शास्‍त्रों में जो कुछ लिखा है, वह सब तुम्‍हें याद है; परंतु ग्रन्‍थ के यथार्थ तत्‍व का तुम्‍हें ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है। जो वेद और शास्‍त्र के ग्रन्‍थों को तो याद रखने में तत्‍पर है, किंतु उनके यथार्थ तत्‍व को नही समझता, उसका वह याद रखना व्‍यर्थ है। जो ग्रन्‍थों के अर्थ कोन हीं समझता, वह केवल रटकर मानो उन ग्रन्‍थों का बोझ ढोता है; परंतु जो ग्रन्‍थ के अर्थ का तत्‍व समझता है, उसके लिये उस ग्रन्‍थ का अध्‍ययन व्‍यर्थ नही है। ऐसा पुरुष पूछने पर तत्त्वज्ञानपूर्वक ग्रन्‍थ के अर्थ को जैसा समझता है, वैसा दूसरों को भी बता सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुरुष प्रकृति की जड़ता को आच्‍छादित करके उसके दु:ख का आश्रय लेता है तथा प्रकृति पुरुष के आनन्‍दगुण को आच्‍छादित करके उसके चैतन्‍य गुण का आश्रय लेती है। तात्‍पर्य यह है कि प्रकृति के संयोग से पुरुष आनन्‍द से वंचित हो दु:ख का भागी होता है और प्रकृति पुरुष के संग से अपनी जड़ता को भुलाकर चेतन की भाँति कार्य करने लगती है।

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