महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-16

चतुर्दश (14) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


द्रोण का पराक्रम, कौरव-पाण्‍डव वीरों का द्वन्‍द्वयुद्ध, रणनदी का वर्णन तथा अभिमन्‍यु की वीरता
  • संजय कहते हैं- राजन! जैसे आग घास-फूस के समूह को जला देती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य पाण्‍डव दल में महान भय उत्‍पन्‍न करते और सारी सेना को जलाते हुए सब ओर विचरने लगे। (1)
  • सुवर्णमय रथ वाले द्रोण को वहाँ प्रकट हुए साक्षात अग्निदेव के समान क्रोध में भरकर सम्‍पूर्ण सेनाओं को दग्‍ध करते देख समस्‍त सृंजय वीर काँप उठे। (2)
  • बाण चलाने में शीघ्रता करने वाले द्रोणाचार्य के युद्ध में निरन्‍तर खींचे जाते हुए धनुष की प्रत्‍यंचा का टंकारघोष वज्र की गड़गड़ाहट के समान बड़े जोर-जोर से सुनायी दे रहा था। (3)
  • शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले द्रोणाचार्य के छोड़े हुए भयंकर बाण पाण्‍डव-सेना के रथियों, घुड़सवारों, हाथियों, घोड़ों और पैदल योद्धाओं को गर्दमें मिला रहे थे। (4)
  • आषाढ़ मास बीत जाने पर वर्षा के प्रारम्‍भ में जैसे मेघ अत्‍यन्‍त गर्जन-तर्जन के साथ फैलाकर आकाश में छा जाता और पत्‍थरों की वर्षा करने लगता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी बाणों की वर्षा करके शत्रुओं के मन में भय उत्‍पन्‍न करने लगे। (5)
  • राजन! शक्तिशाली द्रोणाचार्य उस समय रणभूमि में विचरते और पाण्‍डव सेना को क्षुब्‍ध करते हुए शत्रुओं के मन में लोकोत्तर भय की वृद्धि करने लगे। (6)
  • उनके घूमते हुए रथरूपी मेघमण्‍डल में सुवर्णभूषित धनुष विद्युत के समान बारंबार प्रकाशित दिखायी देता था। (7)
  • उन सत्‍यपरायण परम बुद्धिमान तथा नित्‍य धर्म में तत्‍पर रहने वाले वीर द्रोणाचार्य ने उस रणक्षेत्र में प्रलयकाल के समान अत्‍यन्‍त भयंकर रक्‍त की नदी प्रवाहित कर दी। (8)
  • उस नदी का प्राकट्य क्रोध के आवेग से हुआ था। मांसभक्षी जन्‍तुओं से वह घिरी हुई थी। सेनारूपी प्रवाह द्वारा वह सब ओर से परिपूर्ण थी और ध्‍वजरूपी वृक्षों को तोड़-फोड़कर बहा रही थी। (9)
  • उस नदी में जल की जगह रक्‍तराशि भरी हुई थी, रथों की भँवरे उठ रही थीं, हाथी और घोड़ों की ऊँची-ऊँची लाशें उस नदी के ऊँचे किनारों के समान प्रतीत होती थीं। उसमें कवच नाव की भाँति तैर रहे थे तथा वह मांसरूपी कीचड़ से भरी हुई थी। (10)
  • मेद, मज्‍जा और हडिडयाँ वहाँ बालुकाराशि के समान प्रतीत होती थीं। पग‍ड़ियों का समूह उसमें फेन के समान जान पड़ता था। संग्रामरूपी मेघ उस नदी को रक्‍त की वर्षा द्वारा भर रहा था। वह नदी प्रासरूपी मत्‍स्‍यों से भरी हुई थी। (11)
  • वहाँ पैदल, हाथी और घोड़े ढेर-के-ढेर पड़े हुए थे। बाणों का वेग ही उस नदी का प्रखर प्रवाह था, जिसके द्वारा वह प्रवाहित हो रही थी। शरीररूपी काष्‍ठ से ही मानो उसका घाट बनाया गया था। रथरूपी कछुओं से वह नदी व्‍याप्‍त हो रही थी। (12)
  • योद्धाओं के कटे हुए मस्‍तक कमल-पुष्‍प के समान जान पड़ते थे, जिनके कारण वह कमलवन से सम्‍पन्‍न दिखायी देती थी। उसके भीतर असंख्‍य डूबती-बहती तलवारों के कारण वह नदी मछलियों से भरी हुई-सी जान पड़ती थी। रथ और हाथियों से यत्र-तत्र घिरकर वह नदी गहरे कुण्‍ड के रूप में परिणत हो गयी थी। वह भाँति-भाँति के आभूषणों से विभूषित-सी प्रतीत होती थी। (13)
  • सैकड़ों विशाल रथ उसके भीतर उठती हुई भँवरों के समान प्रतीत होते थे। वह धरती की धूल और तरंगमालाओं से व्‍याप्‍त हो रही थी। उस युद्धस्‍थल में वह नदी महापराक्रमी वीरों के लिये सुगमता से पार करने योग्‍य और कायरों के लिये दुस्‍तर थी। (14)
  • उसके भीतर सैकड़ों लाशें पड़ी हुई थी। गीध और कंक उस नदी का सेवन करते थे। वह सहस्‍त्रों महारथियों को यमराज के लोक में ले जा रही थी। (15)
  • उसके भीतर शूल सर्पों के समान व्‍याप्‍त हो रहे थे। विभिन्‍न प्राणी ही वहाँ जल-पक्षी के रूप में निवास करते थे। कटे हुए क्षत्रिय-समुदाय उसमें विचरने वाले बड़े-बड़े हंसों के समान प्रतीत होते थे। वह नदी राजाओं के मुकुटरूपी जल-पक्षियों से सेवित दिखायी देती थी। (16)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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