चतुर्दशाधिकद्विशततम (214) अध्याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतुर्दशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! रात की वह सारी घटना ब्राह्मणों से कहकर इन्द्रपुत्र अर्जुन हिमालय के पास चले गये। अगस्त्यवट, वसिष्ठ पर्वत तथा भृगुतुंग पर जाकर उन्होंने शौच-स्नान आदि किये। भारत! कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने उन तीर्थों में ब्राह्मणों को कई हजार गौएं दान कीं और द्विजातियों के रहने के लिये घर एवं आश्रम बनवा दिये। हिरण्यबिंदु तीर्थ में स्नान करके पाण्डव श्रेष्ठ पुरुषोत्तम अर्जुन ने अनेक पवित्र स्थानों का दर्शन किया। जनमेजय! तत्पश्चात् हिमालय से नीचे उतरकर भरतकुलभूषण नरश्रेष्ठ अर्जुन पूर्व दिशा की ओर चल दिये। भारत! फिर उस यात्रा में कुरुश्रेष्ठ धनंजय ने क्रमश: अनेक तीर्थों का तथा नैमिषारण्य तीर्थ में बहने वाली रमणीय उत्पलिनी नदी, नन्दा, अपरनन्दा, यशस्विनी कौशिकी (कोसी), महानदी, गयातीर्थ और गंगा जी का भी दर्शन किया। इस प्रकार उन्होंने सब तीर्थों और आश्रमों को देखते हुए स्नान आदि से अपने को पवित्र करके ब्राह्मणों के लिये बहुत-सी गौएं दान कीं। तदनन्तर अंग, बंग और कलिंग देशों में जो कोई भी पवित्र तीर्थ और मन्दिर थे, उन सबमें वे गये। और उन तीर्थों का दर्शन करके उन्होंने विधिपूर्वक वहाँ धन-दान किया। कलिंग राष्ट्र के द्वार पर पहुँचकर अर्जुन के साथ चलने वाले ब्राह्मण उनकी अनुमती लेकर वहाँ से लौट गये। परंतु कुन्तीपुत्र शूरवीर धनंजय उन ब्राह्मणों की आज्ञा ले थोड़े-से सहायकों के साथ उस स्थान की ओर गये, जहाँ समुद्र लहराता था। कलिंग देश को लांघकर शक्तिशाली अर्जुन अनेक देशों, मन्दिरों तथा रमणीय अट्टालिकाओं का दर्शन करते हुए आगे बढ़े। इस प्रकार वे तपस्वी मुनियों से सुशोभित महेन्द्र पर्वत का दर्शन कर समुद्र के किनारे-किनारे यात्रा करते हुए धीरे-धीरे मणिपुर पहुँच गये। वहाँ के सम्पूर्ण तीर्थों और पवित्र मन्दिरों में जाने के बाद महाबाहु अर्जुन मणिपुरनरेश के पास गये। राजन्! मणिपुर के स्वामी धर्मज्ञ चित्रवाहन थे। उनके चित्रागंदा नाम वाली एक परम सुन्दरी कन्या थी। उस नगर में विचरण करते हुई उस सुन्दर अंगों वाली चित्रवाहन कुमारी को अकस्मात् देखकर अर्जुन के मन में उसे प्राप्त करने की अभिलाषा हुई। अत: राजा से मिलकर उन्होंने अपना अभिप्राय इस प्रकार बताया- ‘महाराज! मुझ महामनस्वी क्षत्रिय को आप अपनी यह पुत्री प्रदान कर दीजिये।’ यह सुनकर राजा ने पूछा- ‘आप किनके पुत्र हैं और आपका क्या नाम है?’ अर्जुन ने उत्तर दिया, ‘मैं महाराज पाण्डु तथा कुन्ती देवी का पुत्र हूँ। मुझे लोग धनंजय कहते हैं।’ तब राजा ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- ‘इस कुल में पहले प्रभञ्जन नाम से एक प्रसिद्ध राजा हो गये हैं। उनके कोई पुत्र नहीं था, अत: उन्होंने पुत्र की इच्छा से उत्तम तपस्या प्रारम्भ की। पार्थ! उन्होंने उस समय उग्र तपस्या से पिनाकधारी देवाधिदेव महेश्वर को संतुष्ट कर दिया। तब देवदेवेश्वर भगवान् उमापति उन्हें वरदान देते हुए बोले, तुम्हारे कुल में एक-एक संतान होती जायगी।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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