अष्टाधिकशततम (108) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: अष्टाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! धृतराष्ट्र, पाण्डु और महात्मा विदुर- इन तीनों कुमारों के जन्म से कुरुवंश, कुरुजांगल देश और कुरुक्षेत्र- इन तीनों की बड़ी उन्नति हुई। पृथ्वी पर खेती की उपज बहुत बढ़ गयी, सभी अन्न सरस होने लगे, बादल ठीक समय पर वर्षा करते थे, वृक्षों में बहुत-से फल और फूल लगने लगे। घोड़े-हाथी आदि वाहन हृष्ट-पुष्ट रहते थे, मृग और पक्षी बड़े आनन्द से दिन बिताते थे, फूलों और मालाओं में अनुपम सुगंध होती थी और फलों में अनोखा रस होता था। सभी नगर व्यापार-कुशल वैश्यों तथा शिल्पकला में निपुण कारीगर से भरे रहते थे। शूर-वीर, विद्वान् और संत सुखी हो गये। कोई भी मनुष्य डाकू नहीं था। पाप में रुचि रखने वाले लोगों का सर्वथा अभाव था। राष्ट्र के विभिन्न प्रान्तों में सत्ययुग छा रहा था। उस समय की प्रजा सत्य-व्रत के पालन में तत्पर हो स्वभावत: यज्ञ-कर्म में लगी रहती और धर्मानुकूल कर्मों में संलग्न रहकर एक-दूसरे को प्रसन्न रखती हुई सदा उन्नति के पथ पर बढ़ती जाती थी। सब लोग अभिमान और क्रोध से रहित लोभ से दूर रहने वाले थे; सभी एक-दूसरे को प्रसन्न रखने की चेष्टा करते थे। लोगों के आचार व्यवहार में धर्म की प्रधानता थी। समुद्र की भाँति सब प्रकार से भरा-पूरा कौरव नगर मेघ समूहों के समान बड़े-बड़े दरवाजों, फाटकों और गुपुरों से सुशोभित था। सैकड़ों महलों से संयुक्त वह पुरी देवराज इन्द्र की अमरावती के समान शोभा पाती थी। वहाँ के लोग नदियों, वनखण्डों, बावलियों, छोटे-छोटे जलाशयों, पर्वत शिखरों तथा रमणीय काननों में प्रसन्नतापूर्वक विहार करते थे। उस समय दक्षिणकुरु देश के निवासी उत्तर कुरु में रहने वाले लोगों, देवताओं, ॠर्षियों तथा चारणों के साथ होड़-सी लगाते हुए स्वच्छन्द विचरण करते थे। कौरवों द्वारा बढ़ाये हुए उस रमणीय जनपद में न तो कोई कंजूस था और न विधवा स्त्रियां देखी जाती थीं। उस राष्ट्र के कुओं, बगीचों, सभा भवनों, बावलियों तथा ब्राह्मणों के घरों में सब प्रकार की समृद्धियां भरी रहती थीं और वहाँ नित्य-नूतन उत्सव हुआ करते थे। जनमेजय! भीष्म जी के द्वारा सब ओर से धर्मपूर्वक सुरक्षित भूमण्डल में वह कुरुदेश सैकड़ों देव स्थानों और यज्ञस्तम्भों से चिह्नित होने के कारण बड़ी शोभा पाता था। वह देश राष्ट्रों का शोधन करके निरन्तर उन्नति के पथ पर अग्रसार हो रहा था। राष्ट्र में सब ओर भीष्म जी के द्वारा चलाया हुआ धर्म का शासन चल रहा था। उन महात्माकुमारों के यज्ञोपवीतादि संस्कार किये जाने के समय नगर और देश के सभी लोग निरन्तर उत्सव मनाते थे। जनमेजय! कुरुकुल के प्रधान-प्रधान पुरुषों तथा अन्य नगर निवासियों के घरों में सदा सब ओर यही बात सुनायी देती थी कि ‘दान दो और अतिथियों को भोजन कराओ’। धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा परम बुद्धिमान् विदुर- इन तीनों भाइयों का भीष्म जी ने जन्म से ही पुत्र की भाँति पालन किया। उन्होंने ही उनके सब संस्कार कराये। फिर वे ब्रह्मचर्य व्रत के पालन और वेदों के स्वाध्याय में तत्पर हो गये। परिश्रम और व्यायाम में भी उन्होंने बड़ी कुशलता प्राप्त की। फिर धीरे-धीरे वे युवावस्था को प्राप्त हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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