एकोनचत्वांरिश (39) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनचत्वांरिश अध्याय: श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद संसारवृक्ष का, भगवत्प्राप्ति के उपाय का, जीवात्मा का, प्रभावसहित, परमेश्वर के स्वरूप का एवं क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15 सम्बन्ध- गीता के चौदहवें अध्याय में पांचवें से अठारहवें श्लोक तक तीनों गुणों के स्वरूप, उनके कार्य एवं उनकी बन्धन-कारिता का और बँधे हुए मनुष्यों की उत्तम, मध्यम और अधम गति आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन करके उन्नीसवें और बीसवें श्लोकों में उन गुणों से अतीत होने का उपाय और फल बताया फिर उसके बाद अर्जुन के पूछने पर बाईसवें से पचीसवें श्लोक तक गुणातीत पुरुष के लक्षणों और आचरणों का वर्णन करके छब्बीसवें श्लोक में सगुण परमेश्वर के अव्यभिचारी भक्तियोग को गुणा से अतीत होकर ब्रह्मप्राप्ति के लिये योग्य बनने का सरल उपाय बताया गया। अतएव भगवान में अव्यभिचारी भक्तियोग रूप अनन्य प्रेम उत्पन्न कराने के उद्देश्य से अब उस सगुण परमेश्वर पुरुषोत्तम भगवान के गुण, प्रभाव और स्वरूप का एवं गुणों से अतीत होने में प्रधान साधन वैराग्य और भगवत-शरणागति का वर्णन करने के लिये पंद्रहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है। यहाँ पहले संसार में वैराग्य उत्पन्न कराने के उद्देश्य से तीन श्लोकों द्वारा संसार का वर्णन वृक्ष के रूप में करते हुए वैराग्यरूप शास्त्र द्वारा उसका छेदन करने के लिये कहते हैं। श्रीभगवान् बोले- आदिपुरुष परमेश्वर मूल वाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं[1] तथा वेद जिसके पत्ते कहे गये है[2] उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।[3] उस संसार वृक्ष की तीनों गुणों रूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय भोगरूप कोंपलों वाली[4] देव, मनुष्य और तिर्यक आदि योनि रूप शाखाएं[5] नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासना रूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। इस संसारवृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचार काल में नहीं पाया जाता क्योंकि न तो इसका आदि है, न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकार की स्थिति ही है।[6] इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप शस्त्र द्वारा काटकर।[7] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यद्यपि यह संसारवृक्ष परिर्वतन शील होने के कारण नाशवान, अनित्य और क्षणभंगुर है, तो भी इसका प्रवाह अनादि काल से चला आता है, इसके प्रवाह का अंत भी देखने में नही आता इसलिये इसको अव्यय अर्थात अविनाशी कहतें है क्योंकि इसका मूल सर्वशक्तिमान परमेश्वर नित्य अविनाशी है, किंतु वास्तव में यह संसार वृक्ष अविनाशी नही हैं। यदि यह अव्यय होता तो न तो अगले तीसरे श्लोक में यह कहा जाता कि इसका जैसा स्वरूप बतलाया गया है, वैसा उपलब्ध नहीं होता और न इसको वैराग्यरूप दृढ़ शास्त्र के द्वारा ही छेदन करने के लिये ही कहना बनता।
- ↑ पत्ते वृक्ष की शाखा से उत्पन्न एवं वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले होते हैं। वेद भी इस संसार रूप वृक्ष की मुख्य शाखारूप ब्रह्मा से प्रकट हुए हैं और वेदाविहित कर्मों से ही संसार की वृद्धि और रक्षा होती है, इसलिये वेदों को पत्तो का स्थान दिया गया है।
- ↑ इससे यह भाव दिखाया गया है कि जो मनुष्य मूल सहित इस संसारवृक्ष को इस प्रकार तत्त्व से जानता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर की माया से उत्पन्न यह संसार वृक्ष की भाँति उत्पत्ति-विनाशशील और क्षणिक है, अतएव इसकी चमक-दमक में न फँसकर इसको उत्पन्न करने वाले मायापति परमेश्वर की शरण में जाना चाहिये। और ऐसा समझकर संसार से विरक्त और उपरत होकर जो भगवान् की शरण ग्रहण कर लेता है, वही वास्तव में वेदों को जानने वाला है क्योंकि पन्द्रहवें श्लोक में सब वेदों के द्वारा जानने योग्य भगवान को ही बतलाया है।
- ↑ अच्छी और बुरी योनियों की प्राप्ति गुणों के संग से होती है (गीता 13/21) एवं समस्त लोक और प्राणियों के शरीर तीनों गुणों के ही परिणाम हैं, यह भाव समझाने के लिये उन शाखाओं को गुणों के द्वारा बढ़ी हुई कहा गया है और उन शाखा-स्थानीय देव, मनुष्य और तिर्यक आदि योनियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध -इन पांचों विषयों के रसोपभोग को ही यहाँ कोंपल बतलाया गया है।
- ↑ ब्रह्मलोक से ऊपर पातालपर्यन्त जितनें भी लोक और उनके निवास करने वाली योनियां है, वे ही सब इस संसारवृक्ष की बहुत-सी शाखाएं हैं।
- ↑ इस बात का पता नहीं है कि इसकी यह प्रकट होने और लय होने की परम्परा कब से आरम्भ हुई कब तक चलती रहेगी। स्थितिकाल में भी यह निरन्तर परिवर्तित होता रहता है जो रूप पहले क्षण में है, वह दूसरे क्षण में नहीं रहता- इस प्रकार इस संसार वृक्ष का आदि, अन्त और स्थिति- तीनों ही उपलब्ध नहीं होते।
- ↑ इस संसार वृक्ष को अविद्यामूलक अहंता, ममता और वासनारूप मूल हैं, वे अनादिकाल से पुष्ट होते रहने के कारण अत्यन्त दृढ़ हो गये हैं अतएव उस वृक्ष को अति दृढ मूलों से युक्त बताया गया है। विवेक द्वारा समस्त संसार को नाशवान और क्षणिक समझकर इस लोक और परलोक के स्त्री-पुत्र, धन, मकान तथा मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्ग आदि समस्त भागों में सुख, प्रीति और रमणीयता का न भासना- उनमें आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जाना ही दृढ़ वैराग्य है, उसी का नाम यहाँ ‘असंग-शस्त्र’ है। इस असंग-शस्त्र द्वारा जो चराचर समस्त संसार के चिन्तन का त्याग कर देना- उससे उपरत हो जाना है एवं अहंता, ममता और वासना रूप मूलों का उच्छेद कर देना है- यही उस संसारवृक्ष का दृढ़ वैराग्य रूप शस्त्र के द्वारा समूल उच्छेद करना है।
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