त्रिनवत्यधिकशततम (193) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: त्रिनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! एक दिन ऋषियों, ब्राह्मणों तथा युधिष्ठिर ने पाण्डेय मार्कण्डेय मुनि से पूछा- ‘ब्रह्मन्! महर्षि बक कैसे दीर्घायु हुए थे?' तब मार्कण्डेय जी ने उन सबसे कहा- ‘राजन्! बक महान् तपस्वी होने के कारण दीर्घायु हुए थे। इस विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये’। भरतनन्दन जनमेजय! मार्कण्डेय जी का कथन सुनकर भाइयों सहित कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय जी से पुन: पूछा- महाभाग मुनिश्रेष्ठ! दल्भ के पुत्र महातपस्वी बक ऋषि चिरजीवी तथा देवराज इन्द्र के प्रिय मित्र सुने जाते हैं। भगवन्! बक और इन्द्र का यह समागम (चिरजीवी पुरुषों के) सुख और दु:ख की वार्ता से युक्त कहा गया है। मैं इसे सुनना चाहता हूं; आप यथार्थ रूप से इसका वर्णन करें’। मार्कण्डेय जी बोले- राजन्! जब रोंगटे खड़े कर देने वाला देवासुर संग्राम समाप्त हो गया, उस समय लोकपाल इन्द्र तीनों लोकों के अधिपति बना दिये गये। इन्द्र के शासन काल में मेघ ठीक समय पर अच्छी वर्षा करते और खेती की उपज अच्छी होती थी। सारी प्रजा रोग-व्याधि रहित, धर्म में स्थित तथा धर्म को ही अपना परम आश्रय मानने वाली थी। सब लोग बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने-अपने धर्मों में स्थित रहते थे। अपनी उन सारी प्रजा को आनन्दित देखकर बलासुर के शत्रु देवराज इन्द्र बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करते थे। एक दिन की बात है, इन्द्र ऐरावत हाथी पर आरुढ़ हो चैन से दिन बिताती हुई अपनी प्रजा को देखने के लिये भ्रमण करने लगे। राजन्! विचित्र आश्रमों, नाना प्रकार की कल्याणकारिणी नदियों, समृद्धिशाली नगरों, गांवों, जनपदों, प्रजापालन कुशल धर्मात्मा नरेशों, कुओं, पौंसलों, बावलियों, तालाबों तथा ब्रह्मणों द्वारा सेवित अनेकानेक सरोवरों का अवलोकन करते हुए शतक्रतु इन्द्र एक रमणीय भूभाग में उतरे। राजन्! परम सुन्दर पूर्व दिशा में समुद्र के निकट एक मनोहर एवं सुखद स्थान में, जो बहुत-से वृक्षों से घिरा हुआ था, एक रमणीय आश्रम दिखायी दिया, जहाँ बहुत-से पशु और पक्षी निवास करते थे। देवराज इन्द्र ने उस रमणीय आश्रम में जाकर बक मुनि का दर्शन किया। देवराज इन्द्र को उपस्थित देख बक के हृदय में दृढ़ प्रेम उत्पन्न हुआ। उन्होंने पाद्य, आसन, अर्ध्य और फल मूलादि देकर देवराज का पूजन किया। सबको वर देने वाले बलनिषूदन देवेश्वर इन्द्र जब सुखपूर्वक आसन पर बैठ गये, तब वे मुनिवर बक से इस प्रकार बोले- ‘निष्पाप मुने! आपकी अवस्था एक लाख वर्ष की हो गयी। ब्रह्मन्! आप अपने अनुभव के आधार पर यह बताइये कि चिरजीवी मनुष्यों को क्या दु:ख होता है?' बक ने कहा- देवेश्वर! अप्रिय मनुष्यों के साथ रहना पड़ता है। प्रियजनों की मृत्यु हो जाने पर उनके वियोग का दु:ख सहते हुए जीवन व्यतीत करना पड़ता है और दुष्ट मनुष्यों का संग प्राप्त होता है। चिरजीवी मनुष्यों के लिये यही महान् दु:ख है। अपनी आंखों के सामने स्त्री और पुत्रों की मृत्यु होती है। भाई-बन्धु आदि जाति के लोगों और सुहृदों का सदा के लिये वियोग हो जाता है तथा जीवन निर्वाह के लिये दूसरों के अधीन रहकर उनके तिरस्कार का कष्ट भोगना पड़ता है। इससे बढ़कर महान् दु:ख और क्या हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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