महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 189 श्लोक 1-18

एकोननवत्यधिकशततम (189) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोननवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

चारों वर्णों के अलग-अलग कर्मों का और सदाचार का वर्णन तथा वैराग्य से परब्रह्म की प्राप्ति

भरद्वाज ने पूछा- वक्‍ताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षे! द्विजोत्तम! अब मुझे यह बताइये कि मनुष्‍य कौन-सा कर्म करने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍व अथवा शूद्र होता है?

भृगु जी ने कहा- जो जाति, कर्म आदि संस्कारों से सम्पन्न, पवित्र तथा वेदों के स्वाध्‍याय में संलग्न है, (यजन-याजन, अध्‍ययनाध्‍यापन और दान–प्रतिग्रह–इन) छ: कर्मों में स्थित रहता है, शौच एवं सदाचार का पालन तथा परम उत्तम यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन करता है, गुरु के प्रति प्रेम रखता, नित्य व्रत का पालन करता तथा सत्य में तत्पर रहता है, वही ब्राह्मण कहलाता है। जिसमें सत्य, दान, द्रोह न करने का भाव, क्रूरता का अभाव, लज्जा, दया और तप- ये सद्गुण देखे जाते हैं, वह ब्राह्मण माना गया है। जो क्षत्रियोचित युद्ध आदि कर्म का सेवन करता है, वेदों के अध्‍ययन में लगा रहता है, ब्राह्मणों को दान देता है और प्रजा से कर लेकर उसकी रक्षा करता है, वह क्षत्रिय कहलाता है। इसी प्रकार जो वेदाध्‍ययन से सम्पन्न होकर व्यापार, पशुपालन और खेती का काम करके अन्न संग्रह करने की रुचि रखता है और पवित्र रहता है, वह वैश्‍य कहलाता है। किंतु जो वेद और सदाचार का परित्याग करके सदा सब कुछ खाने में अनुरक्त रहता है और सब तरह के काम करता है, साथ ही बाहर-भीतर अपवित्र रहता है, वह शूद्र कहा गया है। उपर्युक्‍त सत्य आदि सात गुण यदि शूद्र में दिखायी दें और ब्राह्मण में न हों तो वह शूद्र शूद्र नहीं है और वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है। सभी उपायों से लोभ और क्रोध को जीतना चाहिये। यहीं ज्ञानों में पवित्र ज्ञान है और आत्मसंयम है। क्रोध और लोभ मनुष्‍य के कल्याण में बाधा डालने के लिये सदा उद्यत रहते है; अत: पूरी शक्ति लगाकर इन दोनों का निवारण करना चाहिये। धन-सम्पत्ति को क्रोध के आघात से बचाना चाहिये, तप को मात्सर्य के आघात से बचाना चाहिये, विद्या को मान-अपमान से और अपने-आपको प्रमाद के आक्रमण के बचाना चाहिये।

ब्रह्मन! जिसके सभी कार्य कामनाओं के बन्धन से रहित होते हैं तथा जिसने त्याग की आग में सब कुछ होम दिया है, वही त्यागी और वही बुद्धिमान हैं। किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, सबके साथ मैत्रीपूर्ण बर्ताव करे। स्त्री-पुत्र आदि की ममता एवं आसक्ति को त्यागकर बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों को वश में करे और उस स्थिति को प्राप्‍त करे, जो इहलोक और परलोक में भी निर्भय एवं शोकरहित है। नित्य तप करे, मननशील होकर इन्द्रियों का दमन और मन का संयम करे। आसक्ति के आश्रयभूत दे‍ह-गेह आदि में आसक्त न होकर अजित (परमात्मा) को जीतने (प्राप्‍त करने) की इच्‍छा रखे। इन्द्रियों से जिसका ग्रहण होता है, वह सब व्यक्‍त कहलाता है। जो इन्द्रियातीत होने के कारण अनुमान से ही जाना जाय, उसे अव्यक्त समझना चाहिये। जो विश्‍वास के योग्य नहीं है, उस मार्ग पर न चले और जो विश्‍वास करने योग्य है, उसमें मन लगावे। मन को प्राण में और प्राण को ब्रह्म में स्थापित करे। वैराग्य से ही निर्वाण पद (मोक्ष) प्राप्‍त होता है। उसे पाकर मनुष्‍य किसी अनात्म पदार्थ का चिन्तन नहीं करता है। ब्राह्मण संसार से वैराग्य होने पर सुख स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्‍त कर लेता है। सर्वदा शौच और सदाचार का पालन करे और समस्त प्राणियों पर दयाभाव बनाये रखे; यह ब्राह्मण का प्रधान लक्षण है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में भृगु-भारद्वाजसंवाद के प्रंसग मे वर्णों के स्वरूप का कथन विषयक एक सौ नवासीवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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