द्वादश (12) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 1-2 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- "पितामह! जो मोहवश माता-पिता तथा गुरुजनों का अपमान करते हैं, उन कृतघ्नों के लिये क्या प्रायश्चित है? यह बताइये। तात! महाबाहो! दूसरे भी जो निर्लज्ज एवं कृतघ्न हैं, उसकी गति कैसी होती है? यह सब मैं यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूँ।" भीष्म जी ने कहा- "तात! कृतघ्नों की एक ही गति है, सदा के लिये नरक में पड़े रहना। जो माता-पिता तथा गुरुजनों की आज्ञा के अधीन नहीं रहते हैं, वे कृमि, कीट, पिपीलिका और वृक्ष आदि की योनियों में जन्म लेते हैं। मनुष्य योनि में फिर जन्म होना उनके लिये दुर्लभ हो जाता है। इस विषय में जानकार मनुष्य इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हैं। वत्सनाभ नाम वाले एक परम बुद्धिमान महर्षि कठोर व्रत के पालन में लगे थे। उनके शरीर पर दीमकों ने घर बना लिया था, अत: वे ब्रह्मर्षि बाँबीरूप हो गये थे और उसी अवस्था में वे बड़ी भारी तपस्या करते थे। भरतश्रेष्ठ! उनके तप करते समय इन्द्र ने बिजली की चमक और मेघों की गम्भीर गर्जना के साथ बड़ी भारी वर्षा आरम्भ कर दी। पाकशासन इन्द्र ने लगातार एक सप्ताह तक वहाँ जल बरसाया और वे ब्राह्मण वत्सनाभ आँख मूंदकर चुपचाप उस वर्षा का आघात सहन करते रहे। सर्दी और हवा से युक्त यह वर्षा हो ही रही थी कि बिजली से आहत हो उस वल्मीक (बाँबी) का शिखर टूटकर बिखर गया। अब महामना वत्सनाभ पर उस वर्षा की चोट पड़ने लगी। यह देख धर्म के हृदय में करुणा भर आयी और उन्होंने वत्सनाभ पर अपनी सहज दया प्रकट की। तपस्या में लगे हुए उन अत्यंत धार्मिक ब्रह्मर्षि की चिन्ता करते हुए धर्म के हृदय में शीघ्र ही स्वाभाविक सुबुद्धि का उदय हुआ, जो उन्हीं के अनुरूप थी। वे विशाल और मनोहर भैंस का सा अपना स्वरूप बनाकर वत्सनाभ की रक्षा के लिये उनके चारों ओर अपने चारों पैर जमाकर उनके ऊपर खड़े हो गये। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भरतभूषण युधिष्ठिर! जब शीतल हवा से युक्त वह वर्षा बंद हो गयी, तब भैंस का रूप धारण करने वाले धर्म धीरे से उस वल्मीक को छोड़कर वहाँ से दूर खिसक गये। उस मूसलाधार वर्षा में महिषरूपधारी धर्म के खड़े हो जाने से महातपस्वी वत्सनाभ की रक्षा हो गयी। तदनन्तर वहाँ सुविस्तृत दिशाओं, पर्वतों के शिखरों, जल में डूबी हुई सारी पृथ्वी और जलाशयों को देखकर ब्राह्मण वत्सनाभ बहुत प्रसन्न हुए। फिर वे विस्मित होकर सोचने लगे कि 'इस वर्षा से किसने मेरी रक्षा की है।' इतने ही में पास ही खड़े हुए उस भैंसे पर उनकी दृष्टि पड़ी। 'अहो! पशुयोनि में पैदा होकर भी यह कैसा धर्मवत्सल दिखायी देता है? निश्चय ही यह भैंसा मेरे ऊपर शिलापट्ट के समान खड़ा हो गया था। इसीलिये मेरा भला हुआ है। यह बड़ा मोटा और बहुत मांसल है।' तदनन्तर धर्म में अनुराग होने के कारण मुनि के हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि 'जो विश्वासघाती एवं कृतघ्न मनुष्य हैं, वे नरक में पड़ते हैं। मैं प्राणत्याग के सिवा कृतघ्नों के उद्धार का दूसरा कोई उपाय किसी तरह नहीं पाता। धर्मज्ञ पुरुषों का कथन भी ऐसा ही है। पिता-माता का भरण-पोषण न करके तथा गुरुदक्षिणा न देकर मैं कृतघ्नभाव को प्राप्त हो गया हूँ। इस कृतघ्नता का प्रायश्चित है स्वेच्छा से मृत्यु को वरण कर लेना। अपने कृतघ्न जीवन की आकांक्षा और प्रायश्चित की उपेक्षा करने पर भी भारी उपपातक भी बढ़ता रहेगा। अत: मैं प्रायश्चित के लिये अपने प्राणों का परित्याग करूँगा।' अनासक्त चित्त से मेरु पर्वत के शिखर पर जाकर प्रायश्चित करने की इच्छा से अपने शरीर को त्याग देने के लिय उद्यत हो गये। इसी समय धर्म ने आकर उन धर्मज्ञ, धर्मात्मा वत्सनाभ का हाथ पकड़ लिया। धर्म ने कहा- 'महाप्राज्ञ वत्सनाभ! तुम्हारी आयु कई सौ वर्षों की है। तुम्हारे इस आसक्तिरहित आत्मत्याग के विचार से मैं बहुत संतुष्ट हूँ। इसी प्रकार सभी धर्मात्मा पुरुष अपने किये हुए कर्म की आलोचना करते हैं। वत्सनाभ! जगत में कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जिसका मन कभी दूषित न हुआ हो। जो मनुष्य निन्द्य कर्मों से दूर रहकर सब तरह से धर्म का आचरण करता है, वही शक्तिशाली है। महाप्राज्ञ! अब तुम प्राणत्याग के संकल्प से निवृत्त हो जाओ, क्योंकि तुम सनातन (अजर-अमर) आत्मा हो।' युधिष्ठिर ने पूछा- "राजन! स्त्री और पुरुष के संयोग में विषयसुख की अनुभूति किसको अधिक होती है (स्त्री को या पुरुष को)? इस संशय के विषय में आप यथावत रूप से बताने की कृपा करें।" भीष्म जी ने कहा- "राजन! इस विषय में भी भंगास्वन के साथ इन्द्र का पहले जो वैर हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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