महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 132 श्लोक 1-18

द्वात्रिंशदधिकशततम (132) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: द्वात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण के पूछने पर कुंती का उन्हें पांडवों से कहने के लिए संदेश देना

  • वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! कुंती के घर में जाकर उनके चरणों में प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण ने कौरव-सभा में जो कुछ हुआ था, वह सब समाचार उन्हें संक्षेप में सुनाया।(1)
  • भगवान श्रीकृष्ण बोले- बुआजी! मैंने तथा महर्षियों ने भी नाना प्रकार के युक्ति युक्त वचन, जो सर्वथा ग्रहण करने योग्य थे, सभा में कहे, परंतु दुर्योधन ने उन्हें नहीं माना (2)
  • जान पड़ता है, दुर्योधन के वश में होकर उसी के पीछे चलने वाला यह सारा क्षत्रिय समुदाय काल से परिपक्व हो गया है। अत: शीघ्र ही नष्ट होने वाला है। अब मैं तुमसे आज्ञा चाहता हूँ, यहाँ से शीघ्र ही पांडवों के पास जाऊँगा। (3)
  • महाप्राशे! मुझे पांडवों से तुम्हारा क्या संदेश कहना होगा, उसे बताओ। मैं तुम्हारी बात सुनना चाहता हूँ। (4)
  • कुंती बोली- केशव! तुम धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर के पास जाकर इस प्रकार कहना- बेटा! तुम्हारे प्रजापालन रूप धर्म की बड़ी हानि हो रही है। तुम उस धर्मपालन के अवसर को व्यर्थ न खोओ। (5)
  • राजन! जैसे वेद के अर्थ को न जानने वाले आज्ञा वेदपाठी की बुद्धि केवल वेद के मंत्रों की आवृति करने में ही नष्ट हो जाती है और केवल मंत्रपाठ मात्र धर्म पर ही दृष्टि रहती है, उसी प्रकार तुम्हारी बुद्धि भी केवल शांतिधर्म को ही देखती है। (6)
  • बेटा! ब्रहमाजी ने तुम्हारे लिए जैसे धर्म की सृष्टि की है, उसी पर दृष्टिपात करो। उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से क्षत्रियों को उत्पन्न किया है, अत: क्षत्रिय बाहुबल से ही जीविका चलाने वाले होते हैं। (7)
  • वे युद्धरूपी कठोर कर्म के लिए रचे गये हैं तथा सदा प्रजापालनरूपी धर्म में प्रवृत होते हैं। मैं इस विषय में एक उदाहरण देती हूँ, जिसे मैंने बड़े-बूढ़ों के मुहँ से सुन रखा है। (8)
  • पूर्वकाल की बात है, धनाध्यक्ष कुबेर राजर्षि मुचुकुन्द पर प्रसन्न होकर उन्हें ये सारी पृथ्वी दे रहे थे, परंतु उन्होंने उसे ग्रहण नहीं किया। (9)
  • वे बोले- ‘देव! मेरी इच्छा है कि मैं अपने बाहुबल से उपार्जित राज्य का उपभोग करूँ।’ इससे कुबेर बड़े प्रसन्न और विस्मित हुए। (10)
  • तदनंतर क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले राजा मुचुकुन्द ने अपने बाहुबल से प्राप्त की हुई इस पृथ्वी का न्यायपूर्वक शासन किया। (11)
  • भारत! राजा के द्वारा सुरक्षित हुई प्रजा यहाँ जिस धर्म का अनुष्ठान करती है, उसका चौथाई भाग उस राजा को मिल जाता है। (12)
  • यदि राजा धर्म का पालन करता है तो उसे देवत्व की प्राप्ति होती है और यदि वह अधर्म करता है तो नरक में ही पड़ता है। (13)
  • राजा की दंडनीति यदि उसके द्वारा स्वधर्म के अनुसार प्रयुक्त हुई तो वह चारों वर्णों को नियंत्रण में रखती है और अधर्म से निवृत्त करती है। (14)
  • यदि राजा दंडनीति के प्रयोग में पूर्णत: न्याय से काम लेता है तो जगत में ‘सत्युग’ नामक उत्तमकाल आ जाता है। (15)
  • राजा का कारण काल है या काल का कारण राजा है, ऐसा संदेह तुम्हारे मन में नहीं उठना चाहिए, क्योंकि राजा ही काल का कारण होता है। (16)
  • राजा ही सत्युग, त्रेता और द्वापर का स्रष्टा है। चौथे युग काली के प्रकट होने में भी वही कारण है। (17)
  • अपने सत्कर्मों द्वारा सत्युग उपस्थित करने के कारण राजा को अक्षय स्वर्ग कि प्राप्ति होती है। त्रेता की प्रवृत्ति करने से भी उसे स्वर्ग की ही प्राप्ति होती है, किन्तु वह अक्षय नहीं होती। (18)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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