चत्वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर सुबलपुत्र शकुनि, राजा दुर्योधन, दु:शासन और कर्ण ने (आपस में) एक दुष्टतापूर्ण गुप्त सलाह की। उन्होंने कुरुनन्दन महाराज धृतराष्ट्र से आज्ञा लेकर पुत्रों सहित कुन्ती को आग में जला डालने का विचार किया। तत्त्वज्ञानी विदुर उनकी चेष्टाओं से उनके मन का भाव समझ गये और उनकी आकृति ही उन दुष्टों की गुप्त मन्त्रणा का भी उन्होंने पता लगा लिया। विदुर जी ने मन-ही-मन जानने योग्य सभी बातें जान लीं। वे सदा पाण्डवों के हित में संलग्न रहते थे, अत: निष्पाप विदुर ने यही निश्चय किया कि कुन्ती अपने पुत्रों के साथ यहाँ से भाग जाय। उन्होंने एक सुदृढ़ नाव बनवायी, जिसे चलाने के लिये उसमें यन्त्र[1] लगाया था। वह वायु के वेग और लहरों के थपेड़ों का सामना करने में समर्थ थी। उसमें झंडियां और पताकाऐं फहरा रही थीं। उस नाव को तैयार कराके विदुर जी ने कुन्ती से कहा- ‘देवि! राजा धृतराष्ट्र इस कुरुकुल की कीर्ति एवं वंशपरम्परा का नाश करने वाले पैदा हुए हैं। इनका चित्त पुत्रों के प्रति ममता से व्याप्त हुआ है, इसलिये ये सनातन धर्म का त्याग कर रहे हैं। शुभे! जल के मार्ग में यह नाव तैयार है, जो हवा और लहरों के वेग को भली-भाँति सह सकती है। इसी के द्वारा (कहीं अन्यत्र जाकर) तुम पुत्रों सहित मौत की फांसी से छूट सकोगी’। भरतश्रेष्ठ! यह बात सुनकर यशस्विनी कुन्ती को बड़ी व्यथा हुई। वे पुत्रों सहित (वारणावत के लाक्षागृह से बचकर) नाव पर जा चढ़ीं और गंगा जी की धारा पर यात्रा करने लगीं। तदनन्तर विदुर जी के कहने से पाण्डवों ने नाव को वहीं डुबा दिया और उन कौरवों के लिये हुए धन को लेकर विघ्न-बाधाओं से रहित वन में प्रवेश किया। वारणावत के उस लाक्षागृह में निषाद जाति की एक स्त्री किसी कारण वश अपने पांच पुत्रों के साथ आकर ठहर गयी थी। वह बेचारी निरपराध होने पर भी उसमें पुत्रों सहित जलकर भस्म हो गयी। म्लेच्छों में (भी) नीच पापी पुरोचन भी उसी घर में जल मरा और धृतराष्ट्र के दुरात्मा पुत्र अपने सेवकों सहित धोखा खा गये। विदुर की सलाह के अनुसार काम करने वाले महात्मा कुन्ती पुत्र अपनी माता के साथ मृत्यु से बच गये। उन्हें किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँची। साधारण लोगों को उनके जीवित रहने की बात ज्ञात न हो सकी। तदनन्तर वारणावत नगर में वहाँ के लोगों ने लाक्षागृह को दग्ध हुआ देख (अत्यन्त) दुखी हो पाण्डवों के लिये (बड़ा) शोक किया। तथा राजा धृतराष्ट्र के पास यथावत् समाचार कहने के लिये किसी को भेजकर कहलाया- ‘कुरुनन्दन! तुम्हारा महान् मनोरथ पूरा हो गया। पाण्डवों को तुमने जला दिया। सब तुम कृतार्थ हो जाओ और पुत्रों के साथ राज्य भोगो’ यह सुनकर पुत्र सहित धृतराष्ट्र शोकमग्न हो गये। उन्होंने, विदुर जी ने तथा कुरुकुल शिरोमणि भीष्म जी ने भी भाई-बन्धुओं के साथ (पुतल-विधि से) पाण्डवों के प्रेतकार्य (दाह और श्राद्ध आदि) सम्पन्न किये। जनमेजय बोले- विप्रवर! मैं लाक्षागृह जलने और पाण्डवों के उससे बच जाने का वृत्तान्त पुन: विस्तार से सुनना चाहता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इससे महाभारतकाल में यंत्रयुक्त नौकाओं (जहाजों) का निर्माण सूचित किया है।
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