महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 155 श्लोक 1-18

पन्चपन्चाशदधिकशततम (155) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन

भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! वायु देवता के ऐसा कहने पर भी राजा कार्तवीर्य अर्जुन चुपचाप ही बैठे रह गया, कुछ बोल न सका। तब वायु देव पुनः उससे बोले- ‘राजन! अब ब्राह्मण जातीय अगस्त्य का माहात्म्य सुनो- ‘हैहयराज! प्राचीन समय में असुरों ने देवताओं को परास्त करके उनका उत्साह नष्ट कर दिया। दानवों ने देवताओं के यज्ञ, पितरों के श्राद्ध तथा मनुष्यों के कर्मानुष्ठान लुप्त कर दिये। तब अपने ऐश्वर्य से भ्रष्ट हुए देवता लोग पृथ्वी पर मारे-मारे फिरने लगे। ऐसा सुनने में आया है। राजन! तदनन्तर एक दिन देवताओं ने सूर्य के समान प्रकाशमान, तेजस्वी, दीप्तिमान और महान व्रतधारी अगस्त्य को देखा।

जनेश्वर! उन्हें प्रणाम करके देवताओं ने उनका कुशल-समाचार पूछा और समय पर उन महात्मा से इस प्रकार कहा- ‘मुनिवर! दानवों ने हमें युद्ध में हराकर हमारा ऐश्वर्य छीन लिया है। इस तीव्र भय से आप हमारी रक्षा करें।’ देवताओं के ऐसा कहने पर तेजस्वी अगस्त्य मुनि कुपित हो गये और प्रलयकाल के अग्नि की भाँति रोष से जल उठे। महाराज! उनकी प्रज्वलित किरणों के स्पर्श से उस समय सहस्रों दानव दग्ध होकर आकाश से पृथ्वी पर गिरने लगे। अगस्त्य के तेज से दग्ध होते हुए दैत्य दोनों लोकों का परित्याग करके दक्षिण दिशा की ओर चले गये। उस समय राजा बलि पृथ्वी पर आकर अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। अतः जो दैत्य उनके साथ पृथ्वी पर थे और दूसरे जो पाताल में थे, वे ही दग्ध होने से बचे।

नरेश्वर! तत्पश्चात देवताओं का भय शान्त हो जाने पर वे पुनः अपने-अपने लोक में चले आये। तदनन्तर देवताओं ने अगस्त्य जी से फिर कहा- ‘अब आप पृथ्वी पर रहने वाले असुरों का भी नाश कर डालिये।’ पृथ्वीनाथ! देवताओं के ऐसा कहने पर अगस्त्य जी उनसे बोले- ‘अब मैं भूतलनिवासी असुरों को नहीं दग्ध कर सकता, क्योंकि ऐसा करने से मेरी तपस्या क्षीण हो जायेगी। इसलिये यह कार्य मेरे लिये असम्भव है।'

राजन! इस प्रकार शुद्ध अन्तःकरण वाले भगवान अगस्त्य ने अपने तप और तेज से दानवों को दग्ध कर दिया था। निष्पाप नरेश! अगस्त्य ऐसे प्रभावशाली बताये गये हैं, जो ब्राह्मण ही हैं। यह बात मैं कहता हूँ, तुम अगस्त्य मुनि से श्रेष्ठ किसी क्षत्रिय को जानते हो तो बताओ।

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! उनके ऐसा कहने पर भी कार्तवीर्य अर्जुन चुप ही रहा। तब वायु देवता फिर बोले- ‘राजन! अब यशस्वी ब्राह्मण वसिष्ठ मुनि का श्रेष्ठ कर्म सुनो। एक समय देवताओं ने वसिष्ठ मुनि के गौरव को जानकर मन-ही-मन उनकी शरण जाकर मानसरोवर के तट पर यज्ञ आरम्भ किया। समस्त देवता यज्ञ की दीक्षा लेकर दुबले हो रहे थे। उन्हें यज्ञ करते देख पर्वत के समान शरीर वाले ‘खली’ नामक दानवों ने उन सबको मार डालने का विचार किया (फिर तो दोनों दलों में युद्ध छिड़ गया)। उनके पास ही मानसरोवर था, जिसके लिये ब्रह्मा जी के द्वारा दैत्यों को यह वरदान प्राप्त था कि ‘इसमें डुबकी लगाने से तुम्हें नूतन जीवन प्राप्त होगा’, अतः उस समय दानवों में से जो हताहत होते थे, उन्हें दूसरे दानव उठाकर सरोवर में फेंक देते थे और वे उसके जल में डुबकी लगाते ही जी उठते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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