महाभारत विराट पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-14

त्रिषष्टितम (63) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन पर समस्त कौरव पक्षीय महारथियों का आक्रमण और सबका युद्ध भूमि से पीठ दिखाकर भागना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन, विविंशति, पुत्र सहित आचार्य द्रोण और महारथी कृपाचार्य- ये सब योद्धा रोष में भरकर धनंजय को मार डालने की इच्छा से अपने मजबूत और दृढ़ धनुषों की टंकार फैलाते हुए उन पर पुनः चढ़ आये। महाराज! तब वानर युक्त ध्वजा वाले अर्जुन भी सूर्य के समान तेजस्वी तथा फहराती हुई पताका से सुशोभित रथ के द्वारा सब ओर से उनका सामना करने के लिये आगे बढ़े। यह देख कृपाचार्य, कर्ण, तथा रथियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण- ये महापराक्रमी धनुजय को ( चारों ओर से ) घेरकर अपने महान धनुषों से उनपर राशि-राशि बाणों का खूब जमेर प्रहार करने लगे। वे तीनों महारथी धनंजय को मार गिराने की इच्छा से वर्षाकाल के मेघों की भाँति सायकों की वर्षा कर रहे थे। उन्होंने समा भूमि में थोड़ी ही दूर पर पार्थ की गति को कुण्ठित करके बड़े चाव से बहुसंख्यक पंख युक्त बाणों की बौछार करते हुए उन्हें तुरंत ढँक दिया। वे महारथी जब इस प्रकार सब ओर से अर्जुन पर दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित बाणों की वर्षा करने लगे, उस समय उनके शरीर का दो अंगुल भाग भी बाणों से ख़ाली नहीं दिखायी देता था। तब महारथी अर्जुन ने हँसते हुए गाण्डीव धनुष पर सूर्य के समान तेजस्वी दिव्य ऐन्द्रास्त्र का संधान किया। फिर तो महाबली किरीटमाली कुन्ती नन्दन अर्जुन सूर्य की भाँति बाण रूपी प्रचण्ड किरणों को बिखेरते हुए समर भूमि में आगे बढ़े। उन्होंने समस्त कौरव योद्धाओं को सायकों से ढँक दिया।

तैसे मेघों में बिजली और पर्वत पर आग की ज्वाला शोभा पाती है, उसी प्रकार अर्जुन के हाथ में गाण्डीव धनुष सुशोभित होता था। वह आकाश में इन्द्र धनुष सा झुका हुआ था। जैसे मेघ के वर्षा करते समय आकाश में बिजली चमक उठती है और वह सम्पूर्ण दिशाओं तथा पृथ्वी को भी सब ओर से प्रकाशित कर देती है, उसी प्रकार बाणों की वर्षा करते हुए गाण्डीव धनुष ने दसों दिशाओं को सम्पूर्णतया आच्छादित कर दिया। जनमेजय! उस समय वहाँ हाथी सवार और रथी आदि सब सैनिक मोहित ( मूर्च्छित ) हो रहे थे। सबने शान्ति ( जड़ता और मूकता ) धारण कर ली थी। किसी का होश ठिकाने न था। सभी योद्धाओं ने हतोत्साह होकर युद्ध से मुँह मोड़ लिया। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! इस प्रकार सारी सेना का व्यूह टूट गया। सब सैनिक अपने जीवन से निराश होकर चारों दिशाओं में भागने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में अर्जुन के संकुल युद्ध विषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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