महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 1-20

त्रयशीत्यधिकशततम (183) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रयशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


काम्यकवन में पाण्डवों के पास भगवान् श्रीकृष्ण, मुनिवर मार्कण्डेय तथा नारद जी का आगमन एवं युधिष्ठिर के पूछने पर मार्कण्डेय जी के द्वारा कर्मफल-भोग का विवेचन

वैशम्पायन जी कहते हैं- कुरुनन्दन जनमेजय! काम्यकवन में पहुँचने पर वहाँ के मुनियों ने युधिष्ठिर आदि पाण्डवों का यथोचित आदर-सत्कार किया। फिर वे द्रौपदी के साथ वहाँ रहने लगे। जब वे विश्वासपात्र पाण्डव निवास करने लगे, तब बहुत-से ब्राह्मणों ने आकर सब ओर से उन्हें घेर लिया (और उन्हीं के साथ रहने लगे)। तदनन्तर एक दिन एक ब्राह्मण आया। उसने यह सूचना दी कि सबको वश में रखने वाले उदारबुद्धि महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण, जो अर्जुन के प्रिय सखा हैं, अभी यहाँ पधारेंगे। कुरुश्रेष्ठ पाण्डवो! आप लोगों का यहाँ आना भगवान् श्रीकृष्ण को ज्ञात हो चुका है। वे सदा आप लोगों को देखने के लिये उत्सुक रहते हैं और आपके कल्याण की बात सोचते रहते हैं। एक शुभ समाचार और है, चिरंजीवी महातपस्वी मार्कण्डेय मुनि, जो स्वाध्याय और तपस्या में संलग्न रहा करते हैं, शीघ्र ही आप लोगों से मिलेंगे।

ब्राह्मण इस प्रकारकी बातें कह ही रहा था कि शैब्य और सुग्रीव नामक अश्वों से जुते हुए रथ द्वारा रथियों में श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण आते हुए दिखायी दिये। जैसे शची के साथ इन्द्र आये हों, उसी प्रकार सत्यभामा के साथ देवकीनन्दन श्रीहरि उन कुरुकुलशिरोमणि पाण्डवों से मिलने वहाँ आये। परम बुद्धिमान् श्रीकृष्ण ने रथ से उतरकर बड़ी प्रसन्नता के साथ धर्मराज युधिष्ठिर तथा बलवानों में श्रेष्ठ भीम को विधिपूर्वक प्रणाम किया। फिर धौम्य मुनि का पूजन किया। तत्पश्चात् नकुल-सहदेव ने आकर उनके चरणों में मस्तक झुकाये। इसके बाद निद्राविजयी अर्जुन को हृदय से लगाकर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को भलीभाँति सान्त्वना दी। परमप्रिय वीरवर अर्जुन को दीर्घकाल के बाद आया देख शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने उन्हें बार-बार हृदय से लगाया। इसी प्रकार श्रीकृष्ण की प्यारी रानी सत्यभामा ने भी पाण्डवों की प्रियपत्नी पांचाली का आलिंगन किया। तदनन्तर पत्नी और पुरोहित सहित समस्त पाण्डवों ने कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन किया और सब-के-सब उन्हें घेरकर बैठ गये। सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण असुरों को भयभीत करने वाले कुन्तीनन्दन अर्जुन से मिलकर उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे परम महात्मा साक्षात् भगवान् भूतनाथ शंकर कार्तिकेय से मिलकर शोभा पाते हैं। तदनन्तर किरीटधारी अर्जुन ने गद के बड़े भाई भगवान् श्रीकृष्ण को वनवास के सारे वृत्तान्त यथार्थरूप से बताकर पुनः उनसे पूछा- 'सुभद्रा और अभिमन्यु कैसे हैं?'

भगवान् मधुसूदन ने अर्जुन, द्रौपदी तथा पुरोहित धौम्य का सम्मान करके सबके साथ बैठकर राजा युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए कहा- 'राजन्! पाण्डुनन्दन! राज्यलाभ की अपेक्षा धर्म महान् है। धर्म की वृद्धि के लिये तप को ही प्रधान साधन बताया गया है। आप सत्य और सरलता आदि सद्गुणों के साथ स्वधर्म का पालन करते हैं, अतः आपने इस लोक और परलोक दोनों को जीत लिया है। आपने सबसे पहले ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन किया है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की है। इसके बाद क्षत्रिय-धर्म के अनुसार धन का उपार्जन करके समस्त प्राचीन यज्ञों का अनुष्ठान किया है।

नरेश्वर! जिसमें गंवारों की आसक्ति हुआ करती है, उसी स्त्री-सम्बन्धी भोग में आपका अनुराग नहीं है। आप कामनाओं से प्रेरित होकर कुछ नहीं करते हैं और धन के लोभ से धर्म का पालन नहीं करते हैं। इसी प्रभाव से धर्मराज कहलाते हैं। राजन्! आपने राज्य, धन और भोगों को पाकर भी सदा दान, सत्य, तप, श्रद्धा, बुद्धि, क्षमा तथा घृति-इन सद्गुणों से ही प्रेम किया है। पाण्डुनन्दन! कुरुजांगल देश की जनता ने द्यूतसभा में द्रौपदी को जिस विवश-अवस्था में देखा था और उस समय उसके साथ जो पापपूर्ण बर्ताव किया गया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सह सकता था?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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