महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 115 श्लोक 1-16

पंचदशाधिकशततम (115) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


राजा ययाति का गालव को अपनी कन्या देना और गालव का उसे लेकर अयोध्यानरेश के यहाँ जाना

  • नारदजी कहते हैं- गरुड़ ने जब इस प्रकार यथार्थ और उत्तम बात कही, तब सहसत्रों यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले, दाता, दानपति, प्रभावशाली तथा राजोचित तेज से प्रकाशित होने वाले सम्पूर्ण नरेशों के स्वामी महाराज ययाति ने सावधानी के साथ बारंबार विचार करके एक निश्चय पर पहुँचकर इस प्रकार कहा। (1-2)
  • राजा ने पहले अपने प्रिय मित्र गरुड़ तथा तपस्या के मूर्तिमान स्वरूप विप्रवर गालव को अपने यहाँ उपस्थित देख और उनकी बताई हुई स्पृहणीय भिक्षा की बात सुनकर मन में इस प्रकार विचार किया- 'ये दोनों सूर्यवंश में उत्पन्न हुए दूसरे अनेक राजाओं को छोड़कर मेरे पास आए हैं।' ऐसा विचार कर वे बोले- (3-4)
  • 'निष्पाप गरुड़! आज मेरा जन्म सफल हो गया। आज मेरे कुल का उद्धार हो गया और आज आपने मेरे इस सम्पूर्ण देश को भी तार दिया। (5)
  • 'सखे! फिर भी मैं एक बात कहना चाहता हूँ। आप पहले से मुझे जैसा धनवान समझते है, वैसा धनसंपन्न अब मैं नहीं रह गया हूँ। मित्र! मेरा वैभव इन दिनों क्षीण हो गया है। (6)
  • 'आकाशचारी गरुड़! इस दशा में भी मैं आपके आगमन को निष्फल करने में असमर्थ हूँ और इन ब्रह्मर्षि की आशा को भी मैं विफल करना नहीं चाहता। (7)
  • 'अत: मैं एक ऐसी वस्तु दूंगा, जो इस कार्य का सम्पादन कर देगी। अपने पास आकर कोई याचक हताश हो जाये तो वह लौटने पर आशा भंग करने वाले राजा के समूचे कुल को दग्ध कर देता है। (8)
  • 'विनतानन्दन! लोक में कोई 'दीजिये' कहकर कुछ मांगे और उससे यह कह दिया जाए की जाओ मेरे पास नहीं है, इस प्रकार याचक की आशा को भंग करने से जितना पाप लगता है, इससे बढ़कर पाप की दूसरी कोई बात नहीं कही जाती है। (9)
  • 'कोई श्रेष्ठ मनुष्य जब कहीं याचना करके हताश एवं असफल होता है, तब वह मरे हुए के समान हो जाता है और अपना हित न करने वाले धनी के पुत्रों तथा पौत्रों का नाश कर डालता है। (10)
  • 'अत: मेरी जो यह पुत्री है, यह चार कुलों की स्थापना करने वाली है। इसकी कान्ति देवकन्या के समान है। यह सम्पूर्ण धर्मों की वृद्धि करने वाली है। (11)
  • 'गालव! इसके रूप-सौन्दर्य से आकृष्ट होकर देवता, मनुष्य तथा असुर सभी लोग सदा इसे पाने की अभिलाषा रखते हैं; अत: आप मेरी इस पुत्री को ही ग्रहण कीजिये। (12)
  • 'इसके शुल्क के रूप में राज लोग निश्चय ही अपना राज्य भी आपको दे देंगे; फिर आठ सौ श्यामकर्ण घोड़ों की तो बात ही क्या है? (13)
  • 'अत: प्रभो! आप मेरी इस पुत्री माधवी को ग्रहण करें और मुझे यह वर दें कि मैं दौहित्रवान [1] होऊँ। (14)
  • तब गरुड़ सहित गालव ने उस कन्या को लेकर कहा- 'अच्छा, हम फिर कभी मिलेंगे।' राजा से ऐसा कहकर गालव मुनि कन्या के साथ वहाँ से चल दिये। (15)
  • तदनंतर गरुड़ भी यह कहकर कि अब तुम्हें घोड़ों की प्राप्ति का यह द्वार प्राप्त हो गया, गालव से विदा ले अपने घर को चले गए। (16)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नातियों से युक्त

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